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________________ नैषधीयचरिते तो यश में मी स्त्रमावतः बाहु का खुनको गुण आ गया है। तमी तो यश दिशारूपी नदियों के तीरों से अपने को रगड़ रहा है, जिससे खुजली मिट जाय / यहाँ कवि की यह कल्पना ही है, इसलिए हम उत्प्रेक्षा मानगे, जो वाचक पद के न होने से गम्य ही है। उसका दिशाओं पर आपगाधारोप से बनने वाले रूपक के साथ संकर है / शब्दालंकारों में 'मज' 'भुजे' में छेक और अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है। यदि त्रिलोकी गणनापरा स्यात् तस्याः समाप्तिर्षदि नायुषः स्यात् / पारेपराधं गणितं यदि स्याद् गणेयनिःशेषगुणोऽपि स स्यात् // 40 // अन्वयः-यदि त्रिलोको गणना-परा स्यात्; यदि तस्याः आयुषः समाप्ति: न स्यात् , ( तदा ) सः अपि गणेव-निःशेषगुपः स्यात् / ____टीका-यदि त्रयाणां लोकानां भुवनानां समाहारः त्रिलोको ( समाहार द्विगु ) त्रयोऽपि लोकाः स्वर्ग-मत्य-पानाला इत्यर्थः गणना संख्यानं नल-गुणानामिति शेषः परं प्रधानं ( कर्मधा० ) यस्यास्तथाभूता ( ब० बी० ) स्थात् ; यदि तस्याः त्रिलोक्या आयुषो जीवित-कालस्य समाप्तिः भवसानं न स्यात् अर्थात् त्रिलोकी जनानाम् आयुनिरन्तं भवेत् , यदि गणितं संख्या पराधस्य पारे इति पारेपराधम् ( अन्वयीभाव स० ) गणितशास्त्रेऽन्तिमसंख्या परार्धमस्ति तस्मादप्यधिका संख्या यदि स्यादित्यर्थः तदा स नलोऽपि गया गणयितुं शक्या निःशेषाः निर्गतः शेषो येभ्य इति ( प्रादि ब० वी०) निखिला गुणाः ( कर्मधा० ) यस्य तथाभूतः ( ब० व्रो०) स्यात् / नलोऽनन्तगुणशालीति भावः // 40 // __ व्याकरण -त्रिलोकी-अकारान्तोत्तरपद होने से स्त्रीत्व में डीप् / गणना गण+ गणिच् +युच+टाप् / पारपराधम् 'पारे मध्ये षष्ठया वा' 2 / 1 / 18) से समास / गणेय-V गण औणादिक एव प्रत्यय / अनुवाद-यदि तीनों ( स्वर्ग, मयं, पाताल ) लोक गिनने में लग जायें, यदि उनको आयु समाप्त हाने में न आए और यदि गिनती परार्ध से भी परे को हो जाय, ता जाकर कहीं उस ( नल ) के गुण गिनती में आ सके // 40 // टिप्पणो-यहां गुणों का गणेयत्व से सम्बन्ध होते हुए मी असम्बन्ध बताया गया है, इसलिए सम्बन्धे असम्बन्धातिशयोक्ति है। 'पारे' 'परा' में छेक है। 'गप' 'गपि 'गुग' 'गणे' में एक से अधिक बार व्यंजन-साम्य से छेक न होकर वृत्त्यनुमास ही होगा। अवारितद्वारतया तिरश्चामन्तःपुरे तस्य निविश्य राज्ञः / गतेषु रम्येष्वधिकं विशेषमध्यापयामः परमाणुमध्याः // 41 // अन्वयः-(हे भैमि, ) तिरश्चाम् अवारित-द्वारतया तस्य राशः अन्तःपुरे निविश्य (वयं) परमाणु-मध्याः रम्येषु गतेषु अधिकं विशेषम् अध्यापयामः। टीका-(हे भैमि, ) तिरश्चाम् पक्षपादोनाम् न बारितं प्रतिषिद्धं द्वारम् गमन-मार्गः( कर्पधा०) येभ्यः तथाभूतानाम् भावस्तत्ता तया गृह प्रवेश निषेधामावादित्ययः तस्व प्रसिद्धस्य राम्रो नृपस्य नरस्य अन्तःपुरे भवरोधे निविश्य प्रविश्य वयं परमाणुवत् मध्यम् उदरम् ( उपमित तत्पु० ) याला तयाभूताः अत्यन्तकृशोदरीरित्यर्थः (ब० वो०) रम्येषु रमणीयेषु गतेषु गतिषु अधिक विलायमित्यर्थः विशेषं बैशिष्टयम् अध्यापयामः पाठयामः कथं सुन्दरं विलक्षणञ्च चलितव्यमित्वस्य शिक्षा दम इत्ययः // 41 //
SR No.032784
Book TitleNaishadhiya Charitam 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohandev Pant
PublisherMotilal Banarsidass
Publication Year
Total Pages402
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
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