________________ नवमः सर्गः 297 "करभोरु" कहकर सम्बोधन करूँगा, इसका तात्पर्य है सामान्यतः सुन्दरी स्त्रियोंको “करभोरू:" कहते हैं, उसकी व्युत्पत्तिके अनुसार करभी इव ऊरू यस्याः सा ( बहु० ), करभ ( करभागविशेष) के समान ऊरुवाली यह अर्य है, उसमें "ऊरूतरपदादौपम्ये" इससे ऊड होकर "करभोरू:" ऐसा दीर्घान्त पद वनता है / परन्तु नल व्यङ्गयसे करभात् उरुः, ताम् (प० त० ), ऐसी व्युत्पत्ति कर अर्थात करभ ( ॐट ) से भी अधिक अर्थात् नासमझ तुम्हें मैं "हे करभोरु" ऐसा सम्बोधन करूंगा, कहते हैं। इस व्युत्पत्ति में मनुष्य जातिकी विविक्षा करके "ऊतः” इस मूत्र से ऊङ् प्रत्यय करके नदी संज्ञा होनेसे "अम्वाऽर्थनद्योर्हस्वः" इससे सम्वृद्धि में ह्रस्व / आचार्य वामनने भी "मनुष्यजातेविवक्षाविवक्षे" ऐसा लिखा है / वदे = वद धातुसे “भासनोपसंभाषाज्ञानयत्न विमत्युपमन्त्रणेपु वदः” इस सूत्रसे ज्ञानके अर्थमें आसनेपद, वद+लट् + इट् / इस पद्य में निरुक्त नामका काव्यका लक्षण है / / 43 / / / विहाय हा ! सर्वसुपर्वनायकं त्वयाऽऽदृतः किं नरसाधिमभ्रम: ? / मुखं विमुच्य श्वसितस्य धारया वृथैव नासापथधावनमः / / 44 // अन्वयः-( हे दमयन्ति ! ) हा ! त्वया सर्वसुपर्वनायकं विहाय नरसाधिमभ्रमः किम् आदृतः ? श्वसितस्य धारया मुखं विमुच्य नासापथधावनश्रमः वृथा एव / / 4 / / व्याख्या -हा = बत, त्वया - भवत्या, सर्वमपर्वनायकं = देवेन्द्र, विहाय% त्यक्त्वा, नरसाधिमभ्रमः = मनुष्यसाधुत्वभ्रान्तिः / किं = किमर्थम्, आदृतः = सम्मानितः। श्वसितस्य = निःश्वासवायोः, धारया = परम्परया, मुखं = वदनं, विमुच्य = विहाय, नासापथधावनश्रमः = नासिकामार्गगमन परिश्रमः, वृथा एव = व्यर्थप्राय एव / / 84 / / ____ अनुवादः- ( हे दमयन्ति ! ) हाय ! तुमने देवताओंके अधिपति इन्द्रको छोड़कर मनुष्य में साधुत्वक भ्रमका कैसे आदर किया ? निःश्वास वायुके प्रवाहका मुखको छोड़कर नासिकामार्गसे गमनका परिश्रम व्यर्थप्राय ही है / / 44 // टिप्पणी-पर्वसुपर्वनायकं = सर्व च ते गपर्वाणः ( क. धा० ), तेयां नायकः, तम् ( प० त० ) / विहाय = वि +हा + क्त्वा ( ल्पा ) / नरसाधिमभ्रमः = साधार्भावः साधिमा, माधु+ इमनिच् / साधिम्नो भ्रमः (प० त० ) / नरे साधिमभ्रमः ( स० त० ) / विमुच्य = वि + मुच् + क्त्वा ( ल्यप् ) /