________________ नैषधीयचरितं महाकाव्यम् नहीं / परन्तु कलश ( घट ) दमयन्तीके कुचस्वरूपमें परिणत होकर लावण्यप्रवाहमें जो कुलालचक्रका भ्रम उत्पन्न कर रहा है सो उस कलशमें उसके हेतु (निमित्तकारण ) दण्डसे उत्पन्न हुआ है, ऐसा प्रतीत होता है / दमयन्तीके कुचकलशमें चक्रवाककी भ्रान्ति होती है, यह दूसरा अर्थ भी होता है / इस प्रकार दमयन्तीके कुचकलशका निमित्तकारण कुलाल चक्रका भ्रम कार्यभूत दमयन्तीके कुचकलशमें भी देखा जाता है। यह तात्पर्य है। . ___ इस पद्यमें "तदुच्चकुची भवन्” इस अंशमें रूपक, पूर्वार्द्ध में उत्प्रेक्षा और उत्तरार्द्ध में उत्प्रेक्षा के वाचक 'इव' आदि शब्दोंके न होनेसे प्रतीयमानोत्प्रेक्षा. और चक्रका कुलालभाण्ड और चक्रवाक, भ्रमका भ्रमण और भ्रान्ति इनमें भेद होने पर भी श्लेषकी महिमासे अभेद अध्यवसाय होनेसे दो अतिशयोक्तियां हैं, इस प्रकारसे सङ्कर हैं // 32 // भजते खल षण्मुखं शिखी चिकुरेनिमितबहंगहणः / अपि जम्भरिपुं दमस्वसुजितकुम्भः कुचशोभयेभराट् // 33 // . अन्वयः- दमस्वसुः चिकुरैः निर्मितबहंगर्हणः शिखी षण्मुखं भजते खलु / दमस्वसुः कुचशोभया जितकुम्भः इभराट् अपि जम्भरिपुं भजते खलु // 33 // व्याख्या-दमस्वसुः=दमभगिन्याः, दमयन्त्या इत्यर्थः / चिकुरैः=केशकलापैः, निर्मितबहंगर्हणः= कृतपिच्छनिन्दः, शिखी=मयूरः, षण्मुखं षडाननं, कार्तिकेयमित्यर्थः, भजते=आश्रयते, खलु =निश्चयेन / तथैव दमस्वसुः = दमयन्त्याः, कुचशोभया = पयोधरकान्त्या, जितकुम्भः- पराजितमस्तकपिण्डः, इभराट् अपि ऐरावतः अपि, जम्भरिपुं जम्भभेदिनम् इन्द्रमित्यर्थः, भजते=आश्रयते, खलु निश्चयेन, उभयत्रापि भीत्या उत्कर्षप्राप्तीच्छया वेति बोद्धव्यम् // 33 // अनुवाद-दमयन्तीके केशकलापोंसे पिच्छोंका तिरस्कार किये जानेसे मयूरने कार्तिकेयका आश्रय लिया है। उसी प्रकार दमयन्तीके कुचोंकी कान्तिसे मस्तकपिण्डोंके परास्त होनेसे ऐरावत हाथीने भी इन्द्रका आश्रय लिया है / / 33 // टिप्पणी-दमस्वसुः=दमस्य स्वसा, तस्याः (10 त० ) / निर्मितबहगर्हणः=बर्हाणां गर्हणा ( 10 त०), "पिच्छबर्हे नपुंशके" इत्यमरः / निर्मिता बर्हगर्हणा यस्य सः ( बहु०)। शिखी शिखा (चूडा) अस्यास्तीति, शिखाशब्दसे "बीह्यादिभ्यश्च" इस सूत्रसे इनि / “शिखावलः शिखी केकी" इत्यमरः /