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________________ 77 यक्ष तुलनात्मक धम्मैविचार. के लिए शुरु से आखिर तक पितृपूजा देवपूजा से अलग होती है। समाज को ही देवपूजा करने का ही अधिकार है वैसे ही उसका धर्म था और इस क्रिया में सारा समाज ही भाग ले सकता तथाच ऐसी पूजा से लाभ भी सब समाज को ही होता और मृत मनुष्यों के सम्बंधी कुटुम्बियों को पितृपूजा करने का अधिकार था और वह उन्हीं का कर्तव्य है वही पितृपूजा कर सकते और उस का लाभ भी उनको मिलता। यह बहुत ही महत्व पूर्ण भेद हम ध्यान में रखेंगे तो ही दुनियां के सब धर्मों में से केवल चीन के ही धर्म में पितृपूजा प्रचलित क्यों रही यह बात समझ सकेंगे / दूसरे सब मुख्य धार्मिक संप्रदायों में देवपूजा ने जल्दी या देर से पितृपूजा को बंद कर दिया / इसका कारण इतना ही है कि देवपूजा में समाज के मनुष्यों का बराबर हित समाया होता है और पितृपूजा में अमुक ही कुटुम्ब के हितका समावेश होता है। जब एक समय दैवी शक्तियों की प्रार्थना अपनी आपत्तिएं दूर करने के उपरांत प्रत्यक्ष सुख प्राप्त करने का रिवाज समाज में दाखल हो जाता है तब समाज अपने देवताओं के पास से सुख समृद्धि प्राप्त करने की आशा रखता है। अमुक कुटुम्ब अपने पूर्वजों से भी समृद्धि पाने की आशा रखता है परन्तु जब तक समाज स्वयम् ऐसे रिवाज को स्वीकार नहीं करता तब तक बहुत अंश तक ऐसा नहीं. हो सकता।
SR No.032770
Book TitleTulnatmak Dharma Vichar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajyaratna Atmaram
PublisherJaydev Brothers
Publication Year1921
Total Pages162
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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