________________ 86 जैन धर्म में पर्याय की अवधारणा को कोई अन्य क्या जान सकता है ? "क्षणानामतिसूक्ष्मानाः आलक्षयितुमशक्यत्वात् / " यही स्थिति पर्यायों की अनन्तता की है। अनन्त का माप तद्पसामर्थ्य का धनी अनन्तज्ञान-केवलज्ञान के धनी सर्वज्ञ ही कर सकते हैं। द्रव्य और सर्वज्ञ- इतना ही नहीं रूपी पुद्गल के सूक्ष्मतम अंश 'परमाणु' को भी सर्वज्ञ जैसे अनंत एवं निराकरण सामर्थ्य के बिना नहीं जाना जा सकता। क्योंकि विज्ञान द्वारा ज्ञात परमाणु का विखंडन हो जाता है, और जैन मान्यता के अनुसार परमाणु वह सूक्ष्मतम अंश है, जो विखंडन के योग्य नहीं है। वस्तु-व्यवस्था और सर्वज्ञ - "सूक्ष्मान्तरित-दूरार्थः प्रत्यक्षा, कस्यचिद्यथा / अनुमेयत्वतेऽग्न्यादिरितिसर्वज्ञसंस्थितिः।" प्रत्येक द्रव्य में प्रमेयत्व नामक सामान्यगुण है। उससे वह द्रव्य और उसकी प्रत्येक पर्याय प्रदेश भी प्रतिसमय किसी न किसी ज्ञान के विषय अवश्य बने रहना चाहिए। क्या सर्वज्ञ के बिना यह संभव है? पर्याय की वैज्ञानिकता परिणमन शीलता प्रत्येक वस्तु का स्वभाव है, किन्तु उसकी भी मर्यादायें हैं। उसका नियमन द्रव्यत्व, वस्तुत्व एवं अगुरुलघुत्व नामक सामान्य गुण करते हैं / अतः यह एक सुव्यवस्थित व्यवस्था है। दूध की नानाविध पर्यायों ने अनेकविध वैज्ञानिक शोधों को जन्म दिया। एक विद्युत-प्रवाह के शीतोष्णकारक बहुविध-यंत्रों में बहुविध उपयोग पुद्गल-पर्यायों के वैचित्र्य को दिखाते हैं। 'उपादान' की 'उपादेय' तथा 'निमित्त' की 'नैमित्तिक भी पर्यायें ही हैं। 'सत्कार्यवाद (सांख्य) एवं 'असत्कार्यवाद' का विवाद पर्याय की अनेकान्तात्मकता को नहीं समझ पाने के कारण उत्पन्न है। द्रव्य-गुण-पर्याय सम्बन्ध अनेकान्त की भित्ति पर आधारित है। जीव और पुद्गल में परस्पर निमित्त-नैमित्तिक सम्बन्धों की बहुलता होने से 'पर्याय' की अवधारणा में इन दोनों की मौलिकता एवं स्वतंत्रता जानना संभवतः एक विशिष्ट दार्शनिक दिशाबोध होगा। क्योंकि दिन के दिशाबोध के बिना दर्शन की दार्शनिकता चरितार्थ नहीं होती है।