________________ शुद्धपर्याय का स्वरूप क्या है ? नीतू जैन 1. शुद्धपर्याय का स्वरूप क्या है - पर्याय के भेद-प्रभेद समझाते हुए आचार्यों ने द्रव्यपर्याय-गुणपर्याय, अर्थपर्याय-व्यञ्जनपर्याय आदि अनेक भेद गिनाये हैं; परन्तु पर्याय के निम्नलिखित दो भेद भी होते हैं, यह हमें भलीभांति समझ लेना चाहिए - 1. शुद्धपर्याय और 2. अशुद्धपर्याय / शुद्ध और अशुद्ध का तात्पर्य भी इस प्रसंग में हमें सावधानी से समझ लेना चाहिए / शुद्ध और अशुद्ध का तात्पर्य यहाँ अविकारी और विकारी अथवा स्वभाव और विभाव नहीं है / अपितु शुद्धपर्याय का अर्थ है - एक अकेली स्वतंत्र पर्याय और अशुद्ध पर्याय का अर्थ है - अनेक पर्यायों का समूह, जिसमें एक पर्याय का उपचार किया जाता है / विचारणीय विषय यहाँ यही है कि इस शुद्ध अर्थात् एक अकेली पर्याय का स्थितिकाल वास्तव में कितना होता है / शास्त्रों में पर्यायों के प्रकरण में जिन घट-पटादि या नर-नारकादि पर्यायों का दृष्टान्त दिया जाता है, वे सभी चिरकालस्थायी हैं / सैकड़ों-हजारों वर्षों तक ही नहीं, सागरों (काल का एक विशाल परिमाण, जिसमें असंख्य वर्ष होते हैं) तक भी उनकी स्थिति देखी जाती है। शास्त्रों में अनेक पर्यायों की स्थिति नामोल्लेखपूर्वक सागरों तक की बताई भी गई है। सिद्धपर्याय तो सादि-अनन्त काल की (अर्थात् जिसकी आदि तो है, पर अन्त कभी नहीं होगी) कही गई है। इसी प्रकार मिथ्यात्वादि कुछ पर्यायें अनादि-सान्त (अर्थात् जिसका अन्त हो, पर आदि कोई नहीं है) कही गई है और सुमेरु आदि कुछ पर्यायें अनादिअनन्त भी कही गई हैं। ___ऐसी स्थिति में अधिकांश पाठकों को यह भ्रम होना स्वाभाविक है कि काल की अपेक्षा से भी पर्याय अनेक प्रकार की होती हैं / कोई एक समय की, कोई एक माह की, कोई एक वर्ष की, कोई सौ वर्ष की, कोई दो सौ वर्ष की, कोई हजार वर्ष की, कोई लाख वर्ष की, कोई असंख्य वर्ष की, कोई सागरों की, कोई सादि-अनन्त काल की, कोई अनादि-सान्त काल की और कोई अनादि-अनन्त काल की। परन्तु वास्तविक स्थिति यह है कि एक अकेली पर्याय, चाहे वह कोई भी हो, एक ही समय