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________________ पर्याय की अवधारणा व स्वरूप देवेन्द्रकुमार शास्त्री भारतीय धर्म-दर्शन, विज्ञान, संस्कृति, साहित्य आदि में 'पर्याय' शब्द का प्रयोग विभिन्न अर्थों तथा विविध सन्दर्भो में किया जाता है / जैनधर्म का यह एक पारिभाषिक शब्द है, जो वस्तु में अंशकल्पना के लिए प्रयुक्त होता है / शब्दकोशों में 'पर्याय' शब्द के अनेक अर्थ लक्षित होते हैं / संस्कृत साहित्य में इसका प्राचीनतम प्रयोग वाल्मीकि रामायण में दृष्टिगोचर होता है / वहाँ पर इसका अर्थ अवधि (काल-सीमा) है। 'पर्याय' शब्द की व्युत्पत्ति एवं अर्थ 'पर्याय' शब्द की व्युत्पत्ति कई प्रकार से की गई है। सामान्यतः यह 'परि' पूर्वक 'अय्' धातु से निष्पन्न है, जिसका अर्थ है - परिणमन / जो सब ओर से भेद को प्राप्त करे सो पर्याय है / जो स्वभावविभाव रूप से गमन करती है अर्थात् परिणमन करती है वह पर्याय है, ऐसी व्युत्पत्ति है / आचार्य हेमचन्द्र ने “अभिधानचिन्तामणिनाममाला" में अनुपूर्वी, परिपाटी, क्रम, अनुक्रम, आवृत्ति तथा पर्याय इन छहों को षडनुक्रम कहा है / 'पर्याय' शब्द के सबसे अधिक अर्थ "गीर्वाणलघुकोश" में मिलते हैं - 1. फेरा, 2. प्रवाह, 3. पुनरावृत्ति, 4. अनुक्रम, 5. प्रकार, 6. उपाय, 7. समानार्थक शब्द, 8. निर्माण, 9. अन्त, 10. विपरीतता, 11. द्रव्यधर्म विशेष, 12. एकत्रित करना / ___ 'पर्याय' शब्द के बोधक 'पर्याय' और 'पर्यव' शब्द एक ही हैं / अंश, पर्याय, भाग, हार, विधा, प्रकार, भेद, छेद, भंग, व्यवहार, विकल्प से सब एकार्थवाचक हैं / 'पर्याय' को विशेष, अपवाद और व्यावृत्ति भी कहते हैं। - यथार्थ में 'पर्याय' का अर्थ वस्तु का वह अंश है, जो परिणमनशील है। प्रत्येक वस्तु में दो प्रकार के अंश हैं - ध्रुव और क्षणिक / द्रव्य, गुण और पर्यायें सामान्यतः एक 'अर्थ' नाम से कही गई है / अर्थ द्रव्यमयी है और द्रव्य गुणमूलक कहे गये हैं तथा द्रव्य और गुणों से पर्यायें होती हैं / अतः यह स्पष्ट है कि जैनदर्शन में द्रव्य, गुण, पर्याय के सन्दर्भ में पर्याय का आलोचन किया जाता है।
SR No.032766
Book TitleJain Dharm me Paryaya Ki Avdharna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSiddheshwar Bhatt, Jitendra B Shah
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year2017
Total Pages214
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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