SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 55
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 45 तत्त्व है, जो इन परिवर्तनों के बीच भी बना रहता है, वही द्रव्य है / प्रत्येक द्रव्य में प्रति समय स्वाभाविक गुणकृत और वैभाविक गुणकृत अर्थात् पर्यायकृत उत्पाद और व्यय होते रहते हैं / यह सब उस द्रव्य की सम्पत्ति या स्वरूप है / इसलिए द्रव्य को उत्पाद, व्यय और ध्रौव्यात्मक कहा जाता है / द्रव्य के साथ-साथ उसके गुणों में भी उत्पाद, व्यय होता रहता है / जीव का गुण चेतना है, उससे पृथक् होने पर जीव जीव नहीं रहेगा, फिर भी जीव की चेतन अनुभूतियाँ स्थिर नहीं रहती हैं, वे प्रतिक्षण बदलती रहती हैं / अतः गुणों में भी उत्पाद-व्यय होता रहता है / पुनः वस्तु का स्व-लक्षण कभी बदलता नहीं है, अतः गुण में ध्रौव्यत्व पक्ष भी है / अतः गुण भी द्रव्य के समान उत्पाद-व्यय और ध्रौव्य लक्षण युक्त है। गुण में जो उत्पाद-व्यय या अवस्थान्तरण होता है, उसे हम गुण की पर्याय कहते हैं / जिस प्रकार कोई भी द्रव्य पर्याय के बिना नहीं होता है, उसी प्रकार कोई भी गुण पर्याय से रहित नहीं होता है / जैन दार्शनिकों के अनुसार द्रव्य एवं गुण में घटित होने वाले विभिन्न परिवर्तन ही पर्याय कहलाते हैं / प्रत्येक द्रव्य प्रति समय एक विशिष्ट अवस्था को प्राप्त होता रहता है। अपने पूर्व क्षण की अवस्था का त्याग करता है और एक नूतन विशिष्ट अवस्था को प्राप्त होता है, इन्हें ही द्रव्य की पर्याय कहते हैं। द्रव्य-पर्याय स्ववर्गीय अनेक द्रव्याश्रित होती है, जबकि गुण पर्यायें एक द्रव्याश्रित होती हैं / यहाँ एक प्रश्न स्वाभाविक रूप से उत्पन्न होता है कि यदि द्रव्य गुण संघात (समुदाय) रूप है तो फिर द्रव्य और गुण की अलग-अलग पर्याय मानने की क्या आवश्यकता है। ज्ञातव्य है कि द्रव्य के स्कन्ध, देश, प्रदेश तथा परमाणु रूप भी हैं, अतः द्रव्य की स्कन्ध, देश, प्रदेश या परमाणु रूप पर्याय अर्थात् उसके आकार आदि द्रव्य पर्याय हैं / द्रव्य में अनन्तानन्त गुण होते हैं और उन गुणों में प्रति समय होने वाली षट् गुण हानि वृद्धि गुण पर्याय है। उदाहरण के रूप में एक मिट्टी का घड़ा है, वह मृतिका रूप पुद्गल द्रव्यों की आकृति है यह आकृति द्रव्य पर्याय है, किन्तु यह काला या लाल है - यह काला या लाल होना गुण पर्याय है / जिस प्रकार जलती हुई दीपशिखा में प्रतिक्षण जलने वाला तेल बदलता रहता है, फिर भी दीपक यथावत् जलता रहता है। उसी प्रकार प्रत्येक द्रव्य सतत रूप से परिवर्तन या परिणाम को प्राप्त होता रहता है। फिर भी द्रव्यत्व यथावत् रहता है, द्रव्य में होने वाला यह परिवर्तन या परिणमन ही उसकी पर्याय है / एक व्यक्ति जन्म लेता है, बालक से किशोर और किशोर से युवक, युवक से प्रौढ़ और प्रौढ़ से वृद्धावस्था को प्राप्त होता है। जन्म से लेकर मृत्यु काल तक प्रत्येक व्यक्ति के देह की शारीरिक संरचना में तथा विचार और अनुभूति की चैतसिक अवस्थाओं में परिवर्तन होते रहते हैं / उसमें प्रतिक्षण होने वाले इन परिवर्तनों के द्वारा वह जो भिन्न-भिन्न अवस्थायें प्राप्त करता है, वे ही पर्याय हैं। ज्ञातव्य है कि पर्याय जैन दर्शन का विशिष्ट शब्द है / जैन दर्शन के अतिरिक्त अन्य किसी भी भारतीय दर्शन में पर्याय की यह अवधारणा अनुपस्थित है। यहाँ हमें यह भी स्मरण रखना चाहिए कि बाल्यावस्था से युवावस्था और युवावस्था से वृद्धावस्था की यह यात्रा कोई ऐसी घटना नहीं है जो एक ही क्षण में घटित हो जाती है। बल्कि यह सब क्रमिक रूप से घटित होता रहता है, हमें उसका पता ही नहीं चलता / यह प्रति समय होने वाला परिवर्तन ही पर्याय है। पर्याय शब्द का सामान्य अर्थ अवस्था विशेष है / दार्शनिक जगत् में पर्याय का जो अर्थ प्रसिद्ध
SR No.032766
Book TitleJain Dharm me Paryaya Ki Avdharna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSiddheshwar Bhatt, Jitendra B Shah
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year2017
Total Pages214
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy