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________________ 43 जैन दर्शन की द्रव्य, गुण एवं पर्याय की अवधारणा का समीक्षात्मक विवेचन मानेंगे तो फिर अनवस्था दोष का प्रसंग आयेगा / आगमिक दृष्टि से गुण की परिभाषा इस रूप में की गयी है कि गुण द्रव्य का विधान है यानि उसका स्व-लक्षण है, जबकि पर्याय द्रव्य का विकार है / गुण भी द्रव्य के समान ही अविनाशी है। जिस द्रव्य का जो गुण है, वह उसमें सदैव रहता है। दूसरे शब्दों में हम यह कह सकते हैं कि द्रव्य का जो अविनाशी लक्षण है अथवा द्रव्य जिसका परित्याग नहीं कर सकता है, वही गुण है / गुण वस्तु की सहभावी अवस्थाओं का सूचक है। फिर भी गुण की ये अवस्थायें अर्थात् गुण-पर्याय बदलती हैं / द्रव्य के समान ही गुणों की पर्याय होती हैं, जो गुण की भी परिवर्तनशीलता को सूचित करती हैं / जीवन में चेतना की अवस्थाएँ बदलती हैं, फिर भी चेतना गुण बना रहता है / वे विशेषताएँ या लक्षण जिनके आधार पर एक द्रव्य को दूसरे द्रव्य से अलग किया जा सकता है, वे विशिष्ट गुण कहे जाते हैं / उदाहरण के रूप में धर्म-द्रव्य का लक्षण गति में सहायक होना है। अधर्म-द्रव्य का लक्षण स्थिति में सहायक होना है। जो सभी द्रव्यों का अवगाहन करता है, उन्हें स्थान देता है, वह आकाश कहा जाता है। इसी प्रकार परिवर्तन काल का और उपयोग जीव का लक्षण है। अतः गुण वे हैं, जिसके आधार पर हम किसी द्रव्य को पहचानते हैं और उसका द्रव्य से पृथकत्व स्थापित हैं। उत्तराध्ययन (28/11-12) में जीव और पदगल के अनेक लक्षणों का भी चित्रण हआ है। उसमें ज्ञान, दर्शन, चारित्र, तप, वीर्य एवं उपयोग ये जीव के लक्षण बताये गये हैं और शब्द, प्रकाश, अन्धकार, प्रभा, छाया, आतप, वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श आदि को पुद्गल का लक्षण कहा गया है। ज्ञातव्य है कि द्रव्य और गुण विचार के स्तर पर ही अलग-अलग माने गये हैं, लेकिन अस्तित्व की दृष्टि से वे पृथक्-पृथक् सत्ताएं नहीं हैं / गुणों के सन्दर्भ में हमें यह भी स्मरण रखना चाहिए कि कुछ गुण सामान्य होते हैं और वे सभी द्रव्यों में पाये जाते हैं और कुछ गुण विशिष्ट होते हैं, जो कुछ ही द्रव्यों में पाये जाते हैं / जैसे-अस्तित्व लक्षण सामान्य है जो सभी द्रव्यों में पाया जाता है, किन्तु चेतना आदि कुछ गुण ऐसे हैं जो केवल जीव द्रव्य में पाये जाते हैं, अजीव द्रव्य में उनका अभाव होता है। दूसरे शब्दों में कुछ गुण सामान्य और कुछ विशिष्ट होते हैं / सामान्य गुणों के आधार पर जाति या वर्ग की पहचान होती है। वे द्रव्य या वस्तुओं का एकत्व प्रतिपादित करते हैं, जबकि विशिष्ट गुण एक द्रव्य का दूसरे से अन्तर स्थापित करते हैं / गुणों के सन्दर्भ में चर्चा करते हुए हमें यह भी ध्यान रखना चाहिए कि अनेक गुण सहभावी रूप से एक ही द्रव्य में रहते हैं / इसीलिए जैन दर्शन में वस्तु को अनन्तधर्मात्मक कहा गया है। विशेष गुणों की एक अन्य विशेषता यह है कि वे द्रव्य विशेष की विभिन्न पर्यायों में भी बने रहते हैं / जीवों की चेतना पर्याय बदलती रहती है, फिर भी उनकी परिवर्तनशील चेतना पर्यायों में चेतना गुण और जीव द्रव्य बना रहता है / कोई भी द्रव्य गुण से रहित नहीं होता / द्रव्य और गुण का विभाजन मात्र वैचारिक स्तर पर किया जाता है, सत्ता के स्तर पर नहीं / गुण से रहित होकर न तो द्रव्य की कोई सत्ता होती है, न द्रव्य से रहित गुण की / अतः सत्ता के स्तर पर गुण और द्रव्य में अभेद है, जबकि वैचारिक स्तर पर दोनों में भेद किया जा सकता है।
SR No.032766
Book TitleJain Dharm me Paryaya Ki Avdharna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSiddheshwar Bhatt, Jitendra B Shah
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year2017
Total Pages214
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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