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________________ 36 जैन धर्म में पर्याय की अवधारणा ___ आचार्य अकलंक ने गुण और पर्याय की एकार्थकता भिन्न प्रकार से सिद्ध की। उनके अनुसार द्रव्य के दो रूप हैं - सामान्य और विशेष / सामान्य, उत्सर्ग, अन्वय और गुण ये एकार्थक हैं / इसी तरह विशेष, पर्याय और भेद ये तीनों एकार्थक हैं / सामान्य का ग्राहक द्रव्यार्थिक नय और विशेष का ग्राहक पर्यायार्थिक नय कहलाता है। गुण द्रव्य का ही सामान्य रूप है, अतः उसके ग्रहण के लिए द्रव्यार्थिक से भिन्न गुणार्थिक नामक स्वतंत्र नय की आवश्यकता ही नहीं है / अकलंक ने 'गुणपर्ययवद् द्रव्यं' सूत्र की व्याख्या में लिखा है - गुण ही पर्याय हैं, क्योंकि गुण और पर्याय दोनों में समानाधिकरण है / यहाँ प्रश्न उपस्थित किया गया है कि जब दोनों एकार्थक हैं तो 'गुणपर्ययवद् द्रव्यं' न कहकर 'गुणवद् द्रव्यं' या 'पर्यायवद् द्रव्य' ऐसा निर्देश करना चाहिए था / इसका समाधान करते हुए स्वयं वार्तिककार लिखते हैं कि वस्तुतः द्रव्य से पृथक् गुण उपलब्ध नहीं होते / द्रव्य का परिणमन ही पर्याय है और गुण उसी परिणमन की एक अभिव्यक्ति है, अतः दोनों अभिन्न हैं, किन्तु वैशेषिक दर्शन में स्वीकृत स्वतन्त्र गुण की अवधारणा का निराकरण करने के लिए सूत्र में गुण पद का प्रयोजन किया गया है / तत्त्वतः दोनों में भेद नहीं है / __ आगम साहित्य में भी मूलतः द्रव्य पर्याय की ही चर्चा है, यद्यपि कहीं-कहीं गुण शब्द का भी प्रयोग हुआ है / पर वहाँ प्रयुक्त गुण शब्द का अभिप्राय यह नहीं है जो प्रस्तुत प्रसंग में विवक्षित है। उदाहरण के लिए आयारो का एक सूत्र है 'जे गुणे से आवहे, जे आवहे से गुणे'३२ यहाँ गुण का अर्थ इन्द्रिय विषय है / इसी तरह भगवती सूत्र में पंचास्तिकाय के संदर्भ में 'गुण' शब्द का प्रयोग अनेकशः हुआ है, पर वहाँ गुण का अर्थ सहभावी धर्म के अर्थ में न होकर, उपकारक शक्ति के अर्थ में है। गुण और पर्याय एकार्थक हैं या भिन्नार्थक ? चिन्तन करने पर फलित होता है कि गुण और पर्याय दो शब्द हैं, अतः इनमें भेद होना चाहिए, क्योंकि गुण मात्र द्रव्याश्रित होते हैं, जबकि पर्याय द्रव्य और गुण दोनों के आश्रित हैं / पुद्गल द्रव्य है, स्पर्श, रस आदि उसके गुण हैं / स्पर्श के भेद स्पर्श की पर्याय है। एक ही वस्तु चक्षु का विषय बनती है तब रूप बन जाती है। रसना से रस, घ्राण से गंध बन जाती है, वस्तु की ये पर्याय व्यवहारश्रित हैं / यदि गुण और पर्याय में अन्तर होता तो संभिन्नस्रोतोपलब्धि के समय एक ही इन्द्रिय से सारे विषयों का ज्ञान कैसे होता तथा एकेन्द्रियादि जीव अपना व्यवहार कैसे चलाते / जीव अपने व्यवहार के लिए इनको पृथक् कर लेता है। अतः गुण और पर्याय को व्यवहार के स्तर पर भिन्न माना जा सकता है। निश्चयतः वे दोनों अभिन्न हैं। आचार्य सिद्धसेन ने तो गुण-पर्याय में ही अभेद कहा, किन्तु आचार्य सिद्धसेनगणी ने तो निश्चयतः द्रव्य-पर्याय को भी अभिन्न मानकर नय से भिन्नता का प्रतिपादन किया - अभिन्नांशमतं वस्तु तथोभयमयात्मकम् / प्रतिपत्तेरूपायेन नयभेदेन कथ्यते // 23 अतः यह निर्विवाद स्वीकार किया जा सकता है कि द्रव्य-गुण-पर्याय में मौलिक भेद नहीं है। व्यवहारतः भेद व परमार्थतः अभेद अर्थात् भेदाभेद है /
SR No.032766
Book TitleJain Dharm me Paryaya Ki Avdharna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSiddheshwar Bhatt, Jitendra B Shah
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year2017
Total Pages214
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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