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________________ 26 जैन धर्म में पर्याय की अवधारणा वस्तु का स्वरूप द्रव्यपर्यायात्मक है, अतः उसकी अवगति के कारक नय भी दो स्वीकार किये गये हैं - द्रव्यार्थिकनय एवं पर्यायार्थिकनय / वस्तु सामान्य-विशेषात्मक, भेदाभेदात्मक है। वस्तु के अभेद स्वरुप/सामान्य स्वरुप का ग्राहक नय द्रव्याथिक है / इस नय के अनुसार वस्तु सर्वथा उत्पाद-व्यय से रहित है / वस्तु न उत्पन्न होती है, न नष्ट होती है / सन्मतितर्क में कहा गया - "दव्वद्वियस्स सव्वं सया अणुप्पण्णमविणटुं" (1/11) पर्यायार्थिक नय की वक्तव्य वस्तु द्रव्यार्थिक नय की दृष्टि में असद्भूत है / सन्मतितर्क में ही कहा गया - “तह पज्जववत्थु अवत्थुमेव दव्वट्ठियणयस्स" पर्यायार्थिक नय वस्तु के परिणमन स्वरुप का ग्राहक है। उसके अनुसार वस्तु उत्पाद-व्ययात्मक स्वरुप वाली ही है / परिवर्तन वस्तु का स्वभावगत स्वरुप है, वस्तु में परिवर्तन होना अवश्यंभावी है। "उप्पजंति वियंति य भावा णियेमेण पज्जवणस्स" (स.१/११) इस नय के अनुसार सामान्य, अभेद, द्रव्य जैसा वस्तु का कोई स्वरूप नहीं है। कहा भी है“दव्वट्ठियवत्तव्वं अवत्थु णियमेण पज्जवणयस्स" पर्यायार्थिक नय के अनुसार ध्रुवता की अवधारणा अवास्तविक है / इन दोनों नय के विषय परस्पर विरोधी प्रतीत हो रहे हैं, किन्तु वे वस्तु के मूल स्वरुप हैं / इन दोनों नयों का संयुक्त विषय ही वस्तु का मूल स्वरूप है। ये दोनों नय परस्पर सापेक्ष होकर ही वस्तु रुप की व्यवस्था कर सकते हैं। परस्पर निरपेक्ष होकर ये स्वयं मिथ्या हो जाते हैं / दोनों नय अलग-अलग मिथ्यादृष्टि इसलिए हैं कि दोनों में से किसी भी एक नय का विषय सत् का लक्षण नहीं बनता / जब ये दोनों नय एक दूसरे से निरपेक्ष होकर केवल स्वविषय को ही सदरुप मानने का आग्रह करते हैं. तब ये मिथ्यारुप हैं. परन्त जब ये दोनों नय परस्पर सापेक्ष रुप से प्रवृत होते हैं अर्थात् दूसरे प्रतिपक्षी का नय का निरसन किए बिना, उसके विषय में मात्र तटस्थ रहकर अपने वक्तव्य को प्रस्तुत करते हैं, तब ये सम्यक् कहे जाते हैं "तम्हा सव्वे वि णया मिच्छादिट्ठी सपक्खपडिबद्धा / अण्णोण्णणिस्सिया उण हवंति सम्मत्तसब्भावा // वस्तु का स्वरुप उभयात्मक है, द्रव्य पर्यायात्मक है, इसलिए उनके संबोधक नय भी द्विविध हैं / नय दो प्रकार के हैं / अतः वस्तु उभयात्मक है / यह वक्तव्य असंगत है / चूंकि वस्तु द्वयात्मक है, अतः नय भी द्विविध हैं, यह वक्तव्य समीचीन है / वस्तु तत्त्वमीमांसा के अन्तर्गत है, जबकि नय ज्ञानमीमांसीय तथ्य हैं। अस्तित्व की मीमांसा द्रव्य एवं पर्याय के आधार पर ही की जा सकती है / अस्तित्व में परिवर्तनशील एवं अपरिवर्तनशील दोनों तरह के धर्म उपस्थित रहते हैं / ध्रुवता अस्तित्व के अपरिवर्तन धर्म की संवाहक है एवं उत्पाद एवं व्यय वस्तु के परिवर्तन स्वरुप के द्योतक हैं / आचार्य महाप्रज्ञ के
SR No.032766
Book TitleJain Dharm me Paryaya Ki Avdharna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSiddheshwar Bhatt, Jitendra B Shah
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year2017
Total Pages214
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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