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________________ जैन दार्शनिक सिद्धान्त पर्युषण पर्व - जैन धर्म का सबसे महत्त्वपूर्ण उत्सव पर्युषण के नाम से जाना जाता है। इसे श्वेताम्बर एक सप्ताह और दिगम्बर दो सप्ताह तक मनाते हैं / इस समय व्रत, उपवास किये जाते हैं, उपाश्रयों में धार्मिक प्रवचन सुने जाते हैं और अन्य धार्मिक क्रियायें की जाती हैं / पर्युषण के अन्तिम दिन क्षमायाचना की विधि की जाती है। वैसे, क्षमायाचना प्रतिदिन करने का विधान है, परन्तु इस समय उसके करने का विशेष महत्त्व माना गया है। क्षमायाचना करते समय निम्नलिखित मन्त्र का उच्चारण किया जाता है - खामेमि सव्वे जीवा सव्वे जीवा खमंतु मे / मित्ति मे सव्व भूयेसु वेरं मझं न केण वि // अर्थात् मैं सब जीवों को क्षमा करता हूँ, सब जीव मुझे क्षमा करें / समस्त जीवों के प्रति मैं मैत्री भावना रखता हूँ, किसी के प्रति मेरा वैर नहीं है / अहिंसा - जैन धर्म की अहिंसा का सिद्धान्त विश्व धर्म को एक विशिष्ट देन है / यद्यपि यह सिद्धान्त विश्व के अनेक धर्मों में प्रतिपादित किया गया है, लेकिन जितनी महत्ता से इसका प्रतिपादन और जितनी दृढ़ता से इसका पालन जैन धर्म में हुआ है, उतना अन्यत्र कहीं नहीं / 'अहिंसा परमो धर्मः' यह जैन धर्म का सार है / यही भावना विचार के क्षेत्र में जैन दर्शन में अनेकान्तवाद में प्रतिफलित होती है, जिससे स्याद्वाद और नयवाद के सिद्धान्त निकलते हैं। इसी से जैन आचार में सहिष्णुता, समभाव और सह-अस्तित्व के गुण प्रकट हुए हैं / अनेकान्तवाद - जैन दर्शन के अनुसार विचार अनेक हैं और बहुत बार वे परस्पर विरोधी प्रतीत होते हैं, परन्तु उनमें भी एक सामञ्जस्य है, अविरोध है और जो उसे भली भाँति देख सकता है, वही वास्तव में तत्त्वदर्शी है / परस्पर विरोधी विचारों में अविरोध का आधार वस्तु का अनन्तधर्मात्मक होना है। एक मनुष्य जिस रूप में वस्तु को देख रहा है, उसका स्वरूप उतना ही नहीं है। मनुष्य की दृष्टि सीमित है, परन्तु वस्तु का स्वरूप असीम है। उसमें अनन्त धर्म और अनन्त प्रदेश होते हैं / प्रत्येक वस्तु द्रव्यरूप में नित्य होने पर भी पर्यायरूप में असंख्य परिवर्तन प्राप्त करती है / अनेकान्तता यथार्थ में वस्तु की इस अनन्त धर्मात्मकता का भान है। अपने इस सिद्धान्त को समझाते हुए जैन आचार्य छ: अन्धे और एक हाथी वाली कहावत को प्रस्तुत करते हैं / बद्ध मानव अन्धे व्यक्ति की तरह अल्पज्ञान के कारण वस्तु की समग्रता का ज्ञान प्राप्त नहीं कर सकता / सर्वज्ञ मुक्त जीव ही वस्तु का सर्वांगीण ज्ञान प्राप्त कर सकता / बद्ध जीव का ज्ञान और ज्ञानाभिव्यक्ति एकांगी होने से उसे 'स्याद्' शब्द का प्रयोग कर यह स्पष्ट करना चाहिये कि किसी एक विशेष दृष्टि से ही उसका कथन सत्य या असत्य या अवक्तव्य या अन्य किसी प्रकार का है। इसी को 'स्याद्वाद' के नाम से पुकारते हैं / स्याद्वादी जब वस्तु का अस्तित्व प्रकट करता है, तो वह केवल 'अस्ति' (है) न कहकर 'स्यादस्ति' कहता है / इससे वस्तु में रहे हुए नास्तित्व आदि का निषेध न होकर भी अस्तित्व का विधान हो जाता है, प्रत्येक वस्तु निजरूप से सत्ता है तो पररूप से असत्ता भी है / घट घट है / यह जितना सत्य है, उतना ही सत्य यह भी है
SR No.032766
Book TitleJain Dharm me Paryaya Ki Avdharna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSiddheshwar Bhatt, Jitendra B Shah
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year2017
Total Pages214
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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