SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 29
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 19 जैन दार्शनिक सिद्धान्त में विभिन्न कालों में होने वाली विरूप अवस्थाओं की संगति किसी भी प्रकार सम्भव नहीं है। इस तत्त्व को 'कर्म' के नाम से पुकारा गया है। प्रत्येक धर्म में कर्म का स्वरूप भिन्न-भिन्न प्रकार का है। परन्तु जैन धर्म में प्रतिपादित कर्म का सिद्धान्त अपने ढंग का अनूठा है। इसमें कर्म को पौद्गलिक माना गया है। कर्म-द्रव्य सम्पूर्ण विश्व में सूक्ष्म कण के रूप में व्याप्त है / वही कर्म-द्रव्य योग के द्वारा सम्पूर्ण विश्व में सूक्ष्म कण के रूप में व्याप्त है / वही कर्म-द्रव्य योग के द्वारा आकृष्ट होकर जीव के साथ बद्ध हो जाते हैं और 'कर्म' कहलाने लगते हैं। प्रत्येक जीव स्वभावतः शुद्ध, बुद्ध और मुक्त है। कर्म विजातीय द्रव्य होने से जीव में विकृति उत्पन्न करते हैं और उसे पराधीन बनाते हैं / इस तरह कर्म के द्वारा आत्मा बन्धन को प्राप्त होता है। कर्म जीव को आच्छादित करने वाला सूक्ष्म आवरण है। यह अपने परमाणुओं द्वारा समस्त जीव को घेरे रहता है / कर्मबद्ध आत्मा विश्व की समस्त वस्तुओं को अनुकूल और प्रतिकूल मानकर दो भागों में बाँट लेता है। यही राग-द्वेषवृत्तियों का उद्गम-स्थल है। इन्हीं वृत्तियों से कर्म-द्रव्यों का आकर्षण होता है। जब तक आत्मा में राग-द्वेष की सत्ता है, तब तक प्रत्येक क्रिया कर्म का रूप धारण कर आत्मा के लिये बन्धनकारक बनती जाती है / मूलतः कर्म दो प्रकार के हैं - द्रव्यकर्म और भावकर्म / पौद्गलिक अणु द्रव्यकर्म हैं / रागद्वेष आदि विषय भावकर्म हैं। दोनों में द्विमुख कार्यकारणभाव है / द्रव्यकर्म से भावकर्म और भावकर्म से द्रव्यकर्म की उत्पत्ति होती है / आशय यह है कि पूर्वसंचित द्रव्यकर्म जब अपना विपाक देते हैं तो जीव में भावकर्म और उन भावकर्मों से पुनः द्रव्यकर्म उत्पन्न होते हैं / यह क्रम अनादि है, परन्तु उसका अन्त हो सकता है। जैन ग्रन्थों में कर्म के प्रभाव की दृष्टि से आठ भेदों और अनेक उपभेदों का वर्णन बड़े विस्तार में मिलता है / कर्म के आठ भेद निम्नलिखित हैं - (1) दर्शनावरणीय - यह सामान्य अवलोकन को अवरूद्ध करता है। (2) ज्ञानावरणीय - इससे यथार्थ तत्त्वज्ञान अवरुद्ध होता है / (3) वेदनीय - इसके प्रभाव से सुख और दुःख की संवेदना होती है / (4) मोहनीय - इसके प्रभाव से मनोविकार उत्पन्न होते हैं, जो सम्यग् दर्शन और सम्यक् चरित्र में बाधक होते हैं। (5) आयुकर्म - इससे आयु या जीवन-अवधि निश्चित होती है। (6) नामकर्म - इससे विभिन्न योनियाँ और गति निर्धारित होती हैं / (7) गोत्रकर्म - इससे भावी जन्म का कुल, जाति, परिस्थिति आदि का निर्धारण होता है / (8) अन्तरायकर्म - इससे सत्कर्म करने और अभीष्ट की प्राप्ति में बाधा पहुँचती है /
SR No.032766
Book TitleJain Dharm me Paryaya Ki Avdharna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSiddheshwar Bhatt, Jitendra B Shah
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year2017
Total Pages214
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy