________________ 160 जैन धर्म में पर्याय की अवधारणा द्रव्यदृष्टि को सम्यग्दृष्टि तथा पर्यायदृष्टि को मिथ्यादृष्टि कहने के पीछे यह कारण भी है कि द्रव्य को अंशी कहा जाता है और पर्याय को अंश कहा जाता है / अंशी में तो उसके सभी अंश शामिल होते हैं, जबकि अंश में सम्पूर्ण अंशी शामिल नहीं होता, अतः अंशी को ग्रहण करने पर अंशी का ग्रहण तो स्वयमेव हो जाता है, लेकिन अंश का ग्रहण करने पर भी अंशी का ग्रहण एकदेशी ही होता है। इसी प्रकार द्रव्यदृष्टि में समस्त पर्यायों का ग्रहण स्वयमेव हो जाता है, लेकिन पर्याय दृष्टि करने पर सम्पूर्ण द्रव्य का ग्रहण नहीं होता, इसीलिए पर्यायदृष्टि को मिथ्यात्व तथा द्रव्यदृष्टि को सम्यक्त्व कहा गया है। यद्यपि जिनागम में जानने की अपेक्षा द्रव्यार्थिक नय और पर्यायार्थिक नय के माध्यम से द्रव्य-पर्याय दोनों को जानना सम्यग्ज्ञान कहा गया है, अतः उस अपेक्षा से हम भी उसका समर्थन पहले इसी लेख में कर आये हैं, लेकिन पर्याय मात्र के प्रति बल दूर करना ही इस व्याख्यान का प्रयोजन है, पर्याय को पर्याय तक सीमित रखने में कोई बुराई नहीं है, लेकिन पर्याय को सर्वस्व मानने में अनन्त मिथ्यात्व है, उसका फल अनन्त संसार है। यदि हम समग्र जिनशासन को देखें तो उसका अधिकांश भाग पर्याय के व्याख्यान से ही भरा पड़ा है; क्योंकि संसार और मोक्ष भी पर्यायें हैं, संसार मार्ग और मोक्ष मार्ग भी पर्यायें हैं, सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चरित्र भी पर्यायें हैं, इतना ही नहीं, बल्कि सात तत्त्वों और नौ पदार्थों में भी पर्याय की ही मुख्यता है, - आस्रव, बन्ध, पुण्य, पाप, संवर, निर्जरा, मोक्ष - ये सभी पर्यायें ही तो हैं / चार अनुयोगों में प्रथमानुयोग, करणानुयोग और चरणानुयोग तो पूर्णतः पर्याय के व्याख्यान से भरे पड़े हैं ही, द्रव्यानुयोग का भी 90% भाग पर्याय का व्याख्यान करता हैं / लेकिन यह सब जानने का विषय है, श्रद्धान और ध्यान करने लायक तो इस सारे व्याख्यान का सार अपना त्रिकाली ध्रुव आत्म-तत्त्व ही है, इसके लिए नीतिशास्त्र का एक श्लोक बताना चाहता हूँ, जो मुझे आचार्यप्रवर मुनि श्री विद्यानन्दजी के सान्निध्य में प्राप्त हुआ है, वह श्लोक निम्न प्रकार है - यो ध्रुवाणि परित्यज्य, अधुवं परिसेवते / ध्रुवाणि तस्य नश्यंति, अध्रुवं नष्टमेव च // अर्थ - जो ध्रुव वस्तु (द्रव्य) को छोड़कर अध्रुव (पर्याय) का आश्रय लेते हैं, उनसे कहते हैं कि ध्रुव वस्तु को उन्होंने छोड़ दिया और अध्रुव वस्तु ने उन्हें छोड़ दिया। उनकी दशा कैसी हो गई - यह बताने की जरूरत नहीं है / इसी संदर्भ में जैनदर्शन की एक बात पर आपका ध्यान आकर्षित करना चाहता हूँ कि यदि कोई द्रव्यलिंगी मुनि 11 अंग और 9 पूर्व का भी पाठी हो और यदि वह अपनी शुद्धात्मा को नहीं जानता तो वह भी मिथ्यादृष्टि ही है, अज्ञानी ही है / कहा भी है - जाना नहीं निज आत्मा, ज्ञानी हुए तो क्या हुए / ध्याया नहीं शुद्धात्मा, ध्यानी हुए तो क्या हुए // 1 यही कारण है कि अध्यात्मग्रन्थ समयसार में वर्णादि से लेकर गुणस्थान पर्यन्त के भावों को