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________________ 158 जैन धर्म में पर्याय की अवधारणा आचार्य कुन्दकुन्द ने मूढदृष्टि का सजीव चित्रण करते हुए इसी दशा का वर्णन किया है - बहिरत्थे फुरियमणो इंदियदारेण णियसरूवचुओ / णियदेहं अप्पाणं अज्झवसदि मूढदिट्ठीओ // अर्थ - मूढदृष्टि-अज्ञानी-मोही-मिथ्यादृष्टि है, वह बाह्य पदार्थ-धन, धान्य, कुटुम्ब आदि पदार्थों में स्फुरित मनवाला है, तथा इन्द्रियों के द्वार से अपने स्वरूप से च्युत है और इन्द्रियों को ही आत्मा जानता है-ऐसा होता हुआ अपने देह को ही आत्मा जानता है, निश्चय करता है; इस प्रकार मिथ्यादृष्टिबहिरात्मा है। छह ढाला में भी मिथ्यादृष्टि जीव की भूलों का मार्मिक वर्णन किया गया है, उसके कुछ स्थल दृष्टव्य हैं मैं सुखी-दुःखी मैं रंक-राव मेरे धन-गृह-गोधन प्रभाव / मेरे सुत-तिय मैं सबल-दीन बेरूप सुभग मूरख-प्रवीन // तन उपजत अपनी उपज जान, तन नशन आपको नाश मान / रागादि प्रगट ये दुःख देन, तिनही को सेवत गिनत चैन // यह पर्यायमूढ़ता वाला जीव यद्यपि पर्याय में मूढ़ता तो करता है, लेकिन उसके भी वास्तविक स्वरूप को नहीं जानता / इस पर्याय का क्या स्वरूप है ? उसकी कितने काल की स्थिति है ? वह कैसे निर्मित हुई ? उसका द्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव क्या है ? आदि कुछ भी नहीं जानता / उदाहरण के लिए मनुष्य पर्याय का विचार करते हैं - यह मनुष्य पर्याय किसी एक द्रव्य की पर्याय नहीं है, इसमें एक जीव है और अनन्त पुद्गल परमाणुओं का पिण्डरूप यह शरीर है, इन दोनों के संयोग से इस दशा को मनुष्य कहते हैं / इस पर्याय की स्थिति मात्र थोड़े ही समय की है, शरीर और आत्मा के संयोग रूप पर्याय है तो उसका वियोग भी अवश्य होगा, पश्चात् वियोग होने पर क्या होगा ? शरीर क्या होगा ? और आत्मा का क्या होगा ? क्या ये नष्ट हो जायेंगे या इनकी भी मात्र पर्याय बदलेगी? यदि पर्याय बदलेगी तो क्या मेरी आत्मा का नाश हो जायेगा? यदि नहीं तो मुझे चिन्ता करने की क्या जरूरत है? मेरी आत्मा तो अन्य पर्याय में भी सतरूप रहेगी, उसका कुछ भी नहीं बिगड सकता, ऐसी पर्यायों का बदलना तो इस मनुष्य पर्याय में भी अनेक बार हुआ है, मैं बालक था, फिर मैं जवान हुआ, फिर वृद्ध हुआ, पर्यायें तो बदलीं; लेकिन मैं तो सदा से कायम रहा हूँ और भविष्य में भी कायम रहूँगा / इसी प्रकार शरीर तो पर्याय का नाम है, उसमें जो मूलभूत पुद्गल परमाणु हैं, उनका कभी भी नाश नहीं हो सकता / इस प्रकार मनुष्य पर्याय के बारे में भी इस मोही जीव को कुछ पता नहीं है। वास्तव में उसको इन सबको समझने की आवश्यकता ही भासित नहीं होती / पर्यायमूढ़ता ने इसे इस तरह जकड़ रखा है कि इस मनुष्य पर्याय को तो 'स्व' जानता है, अतः उसी में अहं बुद्धि करता है, शरीर के सम्बन्ध से जितने सम्बन्ध जुड़ते हैं, उन्हें अपना सम्बन्धी जानता है, शरीर को उत्पन्न करने
SR No.032766
Book TitleJain Dharm me Paryaya Ki Avdharna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSiddheshwar Bhatt, Jitendra B Shah
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year2017
Total Pages214
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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