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________________ जैन दर्शन में पर्याय कुलदीप कुमार पर्याय जैन दर्शन का अति महत्त्वपूर्ण विषय है। पर्याय का वास्तविक अर्थ वस्तु का अंश है। ध्रुव, अन्वयी या सहभुव तथा क्षणिक, व्यतिरेकी या क्रमभावी के भेद से वे अंश दो प्रकार के हैं / अन्वयी को गुण और व्यतिरेकी को पर्याय कहते हैं / पर्याय गुण के विशेष परिणमनरूप होती हैं / अंश की अपेक्षा यद्यपि दोनों ही अंश पर्याय हैं, पर रूढ से केवल व्यतिरेकी अंश को ही पर्याय कहते हैं / जैनदर्शन के अनुसार प्रत्येक वस्तु नित्यानित्यात्मक है / सांख्य दर्शन में वस्तु को सर्वथा नित्य माना गया है और बौद्धदर्शन में वस्तु को अनित्य माना गया है, परन्तु जैनदर्शन के अनुसार इस सम्पूर्ण विश्व में कोई भी वस्तु ऐसी नहीं है जो सर्वथा अनित्य हो, उसमें एक ही समय में नित्यता भी है और अनित्यता भी / __ पर्याय को कुछ विद्वान सामान्य अपेक्षा से क्रिया भी कहते हैं, परन्तु पर्याय एवं क्रिया में बहुत अन्तर है। क्रिया वस्तु के हलन-चलन रूप परिणमन को कहते हैं, परन्तु पर्याय वस्तु के सूक्ष्म परिणमन को कहते हैं। ___ जैनदर्शन के अनुसार प्रत्येक वस्तु द्रव्य-पर्यायात्मक है, अतः हम कह सकते हैं कि प्रत्येक वस्तु नित्यानित्यात्मक है। यद्यपि द्रव्य का लक्षण सत् है, फिर भी प्रकारान्तर से गुण और पर्यायों के समूह को भी द्रव्य कहते हैं, जिस प्रकार जीव एक द्रव्य है, उसमें सुख-ज्ञान आदि गुण पाए जाते हैं और नरनारी आदि पर्यायें पाई जाती हैं / किन्तु द्रव्य से गुण और पर्याय की पृथक् सत्ता नहीं है / ऐसा नहीं है कि गुण पृथक् है, पर्याय पृथक् और उनके मेल से द्रव्य बना है, किन्तु अनादि काल से गुणपर्यायात्मक ही द्रव्य है / साधारण रीति से गुण नित्य होते हैं और पर्याय अनित्य होती हैं, अतः द्रव्य को नित्यअनित्य कहा जाता है / जैनदर्शन के अनुसार इस सम्पूर्ण विश्व में कोई भी वस्तु ऐसी नहीं है जो सर्वथा नित्य या सर्वथा अनित्य हो, अपितु प्रत्येक वस्तु नित्यानित्यात्मक है / उसमें एक साथ नित्यता भी है और अनित्यता भी है / वस्तुतः कोई भी वस्तु तभी सत् हो सकती है, जब उसमें एक साथ नित्यता और
SR No.032766
Book TitleJain Dharm me Paryaya Ki Avdharna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSiddheshwar Bhatt, Jitendra B Shah
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year2017
Total Pages214
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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