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________________ जैन धर्म में पर्याय की अवधारणा के लिए पर्यायार्थिक नय की व्यवस्था की गई। ये दोनों नय परस्पर सापेक्ष हैं। ध्रौव्य से विमुक्त परिवर्तन और परिवर्तन से विमुक्त ध्रौव्य कहीं भी नहीं है / फिर भी अस्तित्व के समग्र स्वरूप को समझने के लिए यह व्यवस्था अत्यंत समीचीन है। द्रव्यार्थिक नय ध्रौव्य अथवा अभेद का विचार करता है, किन्तु परिवर्तन का निरसन नहीं करता, प्रत्येक नय की अपनी सीमा है। वह अपने प्रतिपाद्य विषय के आगे किसी खंडन-मंडन में नहीं जाता / सापेक्षता का तात्पर्य यह है - नय समग्रता का आग्रह नहीं करता। वह समग्र के एक अंश का प्रतिपादन करता है / वह एकांश का विचार करता है, इसीलिए दूसरा अंश उससे जुड़ा हुआ है / यह जोड़ ही सापेक्षता है। __ "जितने विचार, उतने नय' - इस वाक्य में सापेक्षता का सत्य अभिव्यक्त हुआ है / विचार का आधार कोई पर्याय है। पर्याय संख्यातीत होते हैं, इसलिए नय भी असंख्य हैं / असंख्य अंशों का समन्वय करने पर द्रव्य की समग्रता का बोध होता है। एक पर्याय को समग्र मानने का आग्रह मिथ्या दृष्टिकोण है। नय एकांतवाद है, फिर भी वह दृष्टि का मिथ्या कोण नहीं है। इसलिए नय की भूमिका में स्वस्थ चिन्तन का अवकाश है। चिन्तन के दो बड़े क्षेत्र हैं - अभेद और भेद / अभेद के द्वारा व्यवहार का संचालन नहीं होता। भेद विवाद और संघर्ष का हेतु बनता है। तत्त्व-चिन्तन के क्षेत्र में यह भेद ही संघर्ष को जन्म दे रहा है। जैन दार्शनिकों ने अभेद और भेद का समन्वय कर वैचारिक संघर्ष को कम करने का प्रयत्न किया है / जीव और पुद्गल अथवा चेतन और अचेतन में भी सर्वथा भेद नहीं है / चैतन्य जीव का विशेष गुण है और पुद्गल चैतन्य-शून्य है। उसका विशेष गुण है - वर्ण, गंध, रस और स्पर्श का चतुष्टय / विशेष गुण की दृष्टि से जीव और पुद्गल-दोनों भिन्न हैं / किन्तु प्रदेश की दृष्टि से दोनों भिन्न नहीं हैं। जीव के भी प्रदेश हैं और पुद्गल-स्कंध के भी प्रदेश हैं / ज्ञेयत्व, प्रमेयत्व और परिणामित्व की दृष्टि से भी दोनों भिन्न नहीं हैं। अनेकान्त चिन्तन के अनुसार सर्वथा अभेद और सर्वथा भेद एकान्तवादी दृष्टिकोण हैं / उनके द्वारा सत्य की समीचीन व्याख्या नहीं की जा सकती। अनेकान्त चिन्तन के आठ मुख्य क्षेत्र हैं - 1. सत् 3. नित्य 5. सदृश 7. वाच्य 2. असत् 4. अनित्य 6. विसदृश 8. अवाच्य सत्-असत् सत् की व्याख्या द्रव्य के आधार पर की जा सकती है। द्रव्य का ध्रौव्यांश सत् है। वह कालिक है-अतीत में भी था, वर्तमान में है और भविष्य में भी होगा / जहाँ ध्रौव्यांश का प्रश्न है, वहाँ केवल सत् है, असत् कुछ भी नहीं।
SR No.032766
Book TitleJain Dharm me Paryaya Ki Avdharna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSiddheshwar Bhatt, Jitendra B Shah
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year2017
Total Pages214
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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