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________________ 99 सत्ता का द्रव्यपर्यायात्मक पर्याय स्वरूप हैं, जिसमें अनन्त विशेष स्वरूपों में अभिव्यक्त होने की सामर्थ्य तथा कारणात्मक नियमों के अनुसार सदैव किसी विशेष स्वरूप को प्राप्त करने की प्रवृत्ति विद्यमान है / अपनी इस सामर्थ्य और प्रवृत्ति के कारण गुण सामान्य रूप से सदैव वही रहते हुए एक विशेष स्वरूप से नष्ट होकर, दूसरे विशेष स्वरूप से उत्पन्न होते हुए प्रतिक्षण उत्पादव्ययध्रौव्य स्वरूप है / 11 गुण के ही समय विशेष में विद्यमान व्यक्ति स्वरूप पर्याय कहा जाता है तथा विशेष पर्याय रूप से उत्पत्तिविनाशवान होते हुए भी सामान्य रूप से उत्पत्तिविनाशरहित होने के कारण ये द्रव्य का परिणामी नित्य स्वरूप हैं / उदाहरण के लिए आम पर्याय में अवस्थित रंगगन्धरसस्पर्शमय पुद्गल द्रव्य का रंग गुण रंगत्व सामान्य रूप से निरन्तर विद्यमान रहता हुआ हरित रंग रूप पूर्ववर्ती पर्याय रूप से नष्ट होकर, पीत रंग रूप उत्तरवर्ती पर्याय को प्राप्त करता है, कुछ समय पश्चात् वही रंगत्व सामान्य पीत रूपता का परित्याग कर कृष्णरूपता को प्राप्त करता है। उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य तीन अलग-अलग घटनाएं न होकर द्रव्य का एक ही समय में विद्यमान स्वरूप हैं। 'पीत रंग' रूप नवीन पर्याय की उत्पत्ति ही 'हरित रंग' रूप पूर्ववर्ती पर्याय का विनाश है, तथा यही इन दोनों पर्यायों के आधार रूप में निरन्तर अवस्थित रंगत्व सामान्य की ध्रुवता है / पुद्गल द्रव्य के रंग गुण के समान ही एक द्रव्य के समस्त गुण सदैव सामान्य विशेषात्मक और उत्पादव्ययध्रौव्यात्मक स्वरूप से युक्त होते हैं। गुण का स्वरूप सामान्य और विशेष, उत्पाद-व्यय और ध्रौव्य, शक्ति और व्यक्ति, अन्वय और व्यतिरेक रूप सप्रतिपक्षी धर्मों से युक्त है / इन सप्रतिपक्षी धर्मों में तात्विक रूप से अभेद होने पर भी स्वभावगत अन्तर है। इसलिए इनका पृथक्-पृथक् ज्ञान कराने के उद्देश्य से उनमें शाब्दिक और लाक्षणिक दृष्टि से भेद किया जाता है / गुण के ही सामान्य, शक्तिमय, ध्रुव और अन्वयी स्वरूप को गुण तथा उसके विशेष व्यक्त, उत्पत्तिविनाशवान और व्यतिरेकी स्वरूप को पर्याय कहा जाता है / इस भेदात्मक अर्थ में गुण और पर्याय शब्दों का प्रयोग करते हुए आचार्य अमृतचन्द्र कहते हैं "अनेकान्तात्मक वस्तु के अन्वयी विशेष गुण और व्यतिरेकी विशेष पर्याय कहलाते हैं। ... सत्ता नित्यानित्य स्वभावी होने के कारण उत्पादव्ययध्रौव्य स्वरूप है / गुण उसका ध्रुव स्वरूप तथा पर्यायें उसका उत्पादव्ययात्मक स्वरूप हैं / यह पूर्व पर्याय से विनाश को प्राप्त होती हुई उत्तर पर्याय रूप से उत्पाद को प्राप्त होती हुई तथा गुण रूप से ध्रुव होती हुई सदैव उत्पादव्ययध्रौव्य स्वरूप है / 12 द्रव्य, गुण और पर्याय में संज्ञा, संख्या, लक्षण, प्रयोजन आदि की अपेक्षा भेद होते हुए भी तात्विक रूप से अभेद है / ये तीन पृथक्-पृथक् सत्तायें नहीं हैं / इसके विपरीत गुणपर्यायात्मक द्रव्य एक सत्ता हैं / अमृतचन्द्राचार्य कहते हैं, "यह अस्तित्व, जो कि द्रव्य का स्वभाव है, जिस प्रकार प्रत्येक द्रव्य में परिसमाप्त हो जाता है, उसी प्रकार द्रव्य, गुण और पर्याय प्रत्येक में पृथक्-पृथक् रूप से परिसमाप्त नहीं होते, क्योंकि इनकी सिद्धि परस्पर होती है। (द्रव्य की सिद्धि गुण और पर्यायों से, गुण की सिद्धि द्रव्य और पर्याय से तथा पर्याय की सिद्धि द्रव्य और गुण से होती है / ) इसलिए ये एक सत्ता हैं / 13 द्रव्य और गुण में भेदाभेद सम्बन्ध एक द्रव्य अनेक गुणात्मक सत्ता है / गुण द्रव्य की आत्मा हैं, स्वभाव हैं तथा द्रव्य अपने गुणों
SR No.032766
Book TitleJain Dharm me Paryaya Ki Avdharna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSiddheshwar Bhatt, Jitendra B Shah
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year2017
Total Pages214
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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