________________ स्त्रियस्त्वेवं समस्तस्य नरैर्दुःखार्जितस्य वै / पुण्यस्यार्धापहारिण्यः पतिशुश्रूषयैव हि // 60 // नास्ति स्त्रीणां पृथग् यज्ञो न श्राद्धं नाप्युपोषितम् / भर्तृशुश्रूषयैवैतान् लोकानिष्टान् व्रजन्ति हि // 1 // तस्मात् साध्वि ! महाभागे ! पतिशुश्रूषणं प्रति | त्वया मतिः सदा कार्या यतो भर्ता परा गतिः // 6 // यदेवेभ्यो यच्च पित्रागेतभ्यः कुर्याद् भर्ताऽभ्यर्चनं सक्रियातः / तस्याप्यधैं केवलानन्यचित्ता नारी भुते भर्तृशुश्रूषयैव // 63 // अनसूयाजी कहती हैं-पुरुष बड़ा क्लेश उठाकर जिस पुण्य का संचय करते हैं, स्त्रियाँ केवल पतिसेवा से ही उस समस्त पुण्य का आधा भाग प्राप्त कर लेती हैं / 60 // स्त्रियों के लिये यज्ञ, श्राद्ध अथवा उपवास का पृथक विधान नहीं है, वे पति की सेवामात्र से इष्टलोकों की प्राप्ति कर लेती हैं // 61 // इर लिये महाभागे ! पतिसेवा में सदैव अपनी बुद्धि स्थिर रक्खो, क्योंकि पति है नारी की श्रेष्ठ गति है / / 62 // देवता, पितर तथा अतिथियों का सत्कारपूर्व पूजन कर पति जो कुछ भी अर्जित करता है उसके अाधे भाग को नारी केवर अनन्य भाव से पति की सेवा करके प्राप्त कर लेती है / / 63 / / सत्रहवाँ अध्याय इस अध्याय में यह कथा वर्णित है कि अत्रि ऋषि की पत्नी महापतिव्रता अनसूयाजी ने देवतात्रों से प्राप्त हुये वर के अनुसार ब्रह्मा को सोम, विष्णु को दत्तात्रेय तथा शंकर को दुर्वासा के रूप में उत्पन्न किया। सोम को अाकाश में स्थान मिला / अपनी शीतल रश्मियों से लता, श्रोषधि तथा मनुष्यों का श्राप्यायन करना उनका कार्य नियत हुअा। दुर्वासा ने गृह त्याग कर उन्मत्त नामक उत्तम व्रत को धारण कर पृथ्वी में पर्यटन करना पसन्द किया / दत्तात्रेय महायोगी हुये / वे असंग रहना चाहते थे किन्तु लोग उनके गुणों से मुग्ध हो उन्हें छोड़ना नहीं चाहते थे। उन्हें विषयी समझ लोग उनसे अपरक्त हो जायँ इस विचार से उन्होंने अपने साथ एक सुन्दरी तरुणी रख ली। जब उस पर भी लोगों ने उन्हें नहीं छोड़ा तब उन्होंने उस तरुणी के साथ मद्यपान करना प्रारम्भ कर दिया और नाच-गान आदि विलास-लीलाओं में रत रहने लगे। उनकी यह दशा देख उन्हें विकृत एवं दूषित समझ कर लोगों ने उनका साथ छोड़ दिया। वे योगीश्वर थे अतः दिखावे के लिये