________________ सूया का यह संकल्प होते ही ब्राह्मण रोगमुक्त हो तरुण एवं सुपुष्ट शरीर के साथ जीवित हो उठा / देवताओं ने अनसूयाजी का जयजयकार किया और उनसे वर मांगने को कहा | अनसूयाजी ने ब्रह्मा, विष्णु और महेश के अपने पुत्र के रूप में प्रकट होने का वर मांगा। देवताओं ने 'तथाऽस्तु' कहा और अपने अपने स्थान को सानन्द प्रस्थान किया / इस अध्याय के ये श्लोक संग्राह्य हैं-- वयमाप्यायिता मत्ययज्ञभागैर्यथोचितैः / वृष्ट्या ताननुगृह्णीमो मान् शस्यादिसिद्धये // 38 // निष्पादितास्वोषधीषु मा यज्ञैर्यजन्ति नः। तेषां वयं प्रयच्छामः कामान् यज्ञादिपूजिताः // 36 // अधो हि वर्षाम वयं माश्चोर्व प्रवर्षिणः।। तोयवर्षेण हि वयं हविर्वर्षेण मानवाः // 40 // ये नास्माकं प्रयच्छन्ति नित्यनैमित्तिकीः क्रियाः। ऋतुभागं दुरात्मानः स्वयं चाश्नन्ति लोलुपाः // 41 // विनाशाय वयं तेषां तोयसूर्याग्निमारुतान् / क्षितिं च सन्दूषयामः पापानामपकारिणाम् // 42 // दुष्टतोयादियोगेन तेषां दुष्कृतकर्मिणाम् / उपसर्गाः प्रवर्तन्ते मरणाय सुदारुणाः // 43 // ये त्वस्मान् प्रीणयित्वा तु भुञ्जते शेषमात्मना / तेषां पुण्यान् वयं लोकान् विधाम महात्मनाम् // 44 // देवगण कहते हैं-जब मनुष्य यज्ञ के यथोचित भाग देकर हमें तृप्त करते है तब शस्य अादि की सिद्धि के लिये वृष्टि की व्यवस्था कर हम उन्हें अनुगृहीत करते हैं // 38 // ओषधियों की निष्पत्ति होने पर मनुष्य यज्ञों द्वारा हमारा यजन करते हैं और यज्ञ आदि से पूजित होकर हम उन्हें इष्ट वस्तु प्रदान करते हैं // 36 // हम नीचे की ओर जल की वर्षा करते हैं और मनुष्य ऊपर की ओर हवि की वर्षा करते हैं // 40 // जो दुरात्मा नित्य नैमित्तिक क्रियायें नहीं करते, हमें यज्ञों का माग नहीं देते, लोभवश स्वयं ही सब कुछ खा जाते हैं, हम उन अपकारी पापी जनों का विनाश करने के लिये सूर्य, अग्नि, वायु और पृथ्वी को दूषित कर देते है // 41, 42 / / दोषयुक्त जल आदि के सेवन से उन दुष्कर्मियों को अनेक प्रकार के भयंकर रोग होते हैं जिनसे उनकी मृत्यु हो जाती है // 43 // जो लोग हमें तृप्त कर यज्ञ के अवशिष्ट भाग का भक्षण करते हैं, हम उन महात्माओं को पुण्य लोक प्रदान करते हैं // 44 //