________________ ( 57 ) की उपेक्षा करने वाले को ब्रह्महत्या, गुरुहल्या, गोहल्या तथा स्त्रीहत्या के समान महान् पाप होता है // 253 / / त्याग न करने योग्य, निर्दोष तथा भजनपरायण भक्त को जो त्यागता है उसे इस लोक तथा परलोक में कहीं भी सुख नहीं प्राप्त होता; अतः इन्द्र ! आप स्वर्ग को लौट जाय // 254 // यदि वे सबके सब मेरे साथ स्वर्ग जा सके तभी मैं स्वर्ग जाना पसन्द करूँगा, अन्यथा उनके साथ मुझे नरक जाना ही पसन्द होगा // 255 // कुटुम्बियों के सहयोग से ही राजा राज्य का पालन तथा यज्ञ एवं पूर्त कर्मों का अनुष्ठान करता है // 257 // मैंने भी ये सब कार्य अयोध्या के अपने प्रजाजनों के सहयोग से ही किये हैं, स्वर्ग के लालच से मैं अपने उन उपकारी बन्धुत्रों को कदापि न छोड़ेगा // 258 // इसलिये देवराज ! मैं चाहता हूँ कि यज्ञ, दान, जप आदि जो भी मेरे सत्कर्म हैं वे केवल मेरे न रहकर मेरी समस्त प्रजात्रों के भी हों // 25 // अपने कर्म का जो फल मैं अकेला बहुत दिन तक भोगता, मैं चाहता हूँ कि वह फल, भले ही मैं एक ही दिन क्यों न भोD, पर आपकी कृपा से अपनी सारी प्रजा के साथ भोगूं // 260 // नवां अध्याय वशिष्ठ मुनि राजा हरिश्चन्द्र के पुरोहित थे / जिन दिनों राजा कष्ट में थे उन दिनों वशिष्ठ जी गङ्गाजल में रहकर तपस्या कर रहे थे | जब बारह वर्ष के बाद वे जल से बाहर आये और उनको यह ज्ञात हुआ कि विश्वामित्र के कारण राजा को इतना घोर कष्ट हुआ तब उन्होंने विश्वामित्र को उनके अमानवोचित कर्म के दण्ड रूप में बक पक्षी हो जाने का शाप दिया। विश्वामित्र तो परम क्रोधी तथा वशिष्ठ के सहज शत्रु थे / अतः उन्होंने भी वशिष्ठ को सारस पक्षी हो जाने का शाप दिया / फलत: वे दोनों बक और सारस होकर परस्पर युद्ध करने लगे। दोनों ओर से चिरसञ्चित तपोबल का प्रयोग होने से वह युद्ध बड़ा भीषण हो गया और सारा विश्व उस युद्धानल की ज्वाला से जलने लगा / यह दशा देख देवताओं ने ब्रह्माजी से युद्ध बन्द कराने की प्रार्थना की / ब्रह्माजी ने लोकहित के विचार से उन्हें पक्षिशरीर से मुक्त कर उनकी तामस भावना दूर की और सामान्य जन की भांति क्रोध के वश में आकर दुःख से अर्जित तप:शक्ति का क्षय करने की उनकी प्रवृत्ति की भर्त्सना की। ब्रह्माजी के प्रबोधन से दोनों बड़े लजित हुए और युद्ध बन्द कर उनसे क्षमा मांगी तथा परस्पर मेल-जोल कर अपने अपने स्थान को चले गये। इस कथा से यह शिक्षा मिलती है कि क्रोध से बचना बड़ा कठिन है। बड़े-बड़े तपस्वी भी उसकी चपेट में आ जाते हैं / अतः मनुष्य को क्रोध से बचने के लिये बड़ी सावधानी बरतनी चाहिये /