________________ एवमस्य पराध तु व्यतीतं द्विजसत्तम ! द्वितीयस्य परार्धस्य वर्तमानस्य वै द्विज ! वाराह इति कल्पोऽयं प्रथमः परिकल्पितः॥ (मा० पु० 46 अ०) ब्रह्मा के एक दिन को एक कल्प कहा जाता है। ब्रह्मा की आयु का यह द्विपरार्धात्मक काल परब्रह्म परमेश्वर का एक दिन है उत्पत्तेब्रह्मणो यावदायुषो द्विपरार्धकम् / तावद्दिनं परेशस्य.. ( मा० पु० 46 अ०) ब्रह्मा की कथित आयु पूर्ण हो जाने पर समस्त त्रिलोकी का प्रकृति में लय हो जाता है। ब्रह्मा भी काल के गाल में समा जाते हैं / अव्यक्त सारे विकारों से रहित हो अपने स्वरूप में स्थिर हो जाता है, प्रकृति और पुरुष समानधर्मा अर्थात् निष्क्रिय हो अवस्थित हो जाते हैं / प्रकृतिगत इस महान् विनाश को ही प्राकृत प्रलय कहा जाता है यदा तु प्रकृतौ याति लयं विश्वमिदं जगत् / तदोच्यते प्राकृतोऽयं विद्वद्भिः प्रतिसञ्चरः // स्वात्मन्यवस्थितेऽव्यक्ते विकारे प्रतिसंहृते / प्रकृतिः पुरुषश्चैव साधर्म्यणावतिष्ठतः॥ (मा० पु० 46 अ०) यह प्राकृत प्रलय ही परमेश्वर की रात है / इसकी अवधि ब्रह्मा की श्रायु की अवधि के बराबर होती है'तत्समा संयमे निशा' (मा० पु० 46 अ०) इस प्रलय की अवधि समात होने पर अपनी रात के अन्त में प्रातःकाल परब्रह्म परमेश्वर अपने योग द्वारा प्रकृति को क्षुब्ध कर नये ब्रह्मा की उत्पत्ति करते हैं और फिर उसके द्वारा नई सृष्टि की रचना तथा विस्तार होता है, जैसा कि अग्रिम श्लोकों से प्रकट होता है अहमुखे प्रबुद्धस्तु जगदादिरनादिमान् / सर्वहेतुरचिन्त्यात्मा परः कोऽप्यपरक्रियः / / प्रकृतिं पुरुषं चैव प्रविश्याशु जगत्पतिः / क्षोभयामास योगेन परेण परमेश्वरः // प्रधाने क्षोभ्यमाणे तु स देवो ब्रह्मसंज्ञितः / समुत्पन्नः..."