________________ ( 140) आकाश, पाताल, जल आदि सभी स्थानों में अपतिहत थी। उसके राज्य में सब वर्गों के लोग निरालस्य हो अपने कर्त्तव्यपालन में संलग्न रहते थे। अङ्गिरा के पुत्र, बृहस्पति के भ्राता परम तपस्वी महात्मा संवर्त उसके पुरोहित थे / उसने मुञ्जवान् नामक स्वर्णपर्वत के शिखर को तोड़वा मँगाया था और उससे यज्ञ के भूभाग और भवन श्रादि सोने के बनवा डाले थे / ऋषिगण स्वाध्याय के समान उसके चरित्र का गान करते हुये कहा करते थे कि इस पृथ्वी पर मरुत्त के समान दूसरा यजमान ऐसा कौन हुअा कि जिसके यज्ञ में समस्त यज्ञमण्डप और महल सोने के बने हों और जिसके यज्ञों में देवगण सोमपान कर तथा ब्राह्मणगण दक्षिणा पाकर तृप्त हो गये हों और जिसके यज्ञों में इन्द्र श्रादि देवताओं ने ब्राह्मणों को भोजन परोसने का कार्य किया हो। मरुत्त के समान किस राजा के यज्ञ में ऐसा हुअा होगा कि रत्नों से घर भरे रहने के कारण ब्राह्मणों ने दक्षिणा में पाये हुये सुवर्णों को त्याग दिया हो और उन छोड़े हुये सुवर्णों को पाकर दूसरे वर्ण के लोग तृप्त हो गये हों तथा उनके द्वारा अपने यहां बड़े बड़े यज्ञ किये हों। एक दिन एक तपस्वी ने आकर राजा मरुत्त को उसकी पितामही का यह सन्देश सुनाया-“राजन ! तुम्हारे पितामह स्वर्गवासी हो गये हैं, मैं और्व मुनि के आश्रम में रह कर तपस्या करती हूँ। मुझे तुम्हारे राज्य में बहुत बड़ी त्रुटि दिखायी देती है। पाताल से आकर सों ने सात मुनिपुत्रों को डंस लिया है, जलाशयों को दूषित कर दिया है, अपने पसीने, मूत्र तथा मल से हविष्य को भी अपवित्र कर दिया है। यहाँ के महर्षि इन सो को भस्म कर डालने की शक्ति रखते हैं पर वे ऐसा नहीं कर सकते, क्योंकि उन्हें किसी को दण्ड देने का अधिकार नहीं है, वह अधिकार तो राजा होने के नाते केवल तुम्हीं को है। राजपुत्रों को भोगजनित सुख की प्राप्ति तभी तक होती है जब तक उनके मस्तक पर राज्याभिषेक का जल नहीं गिरता / कौन मित्र हैं ? कौन शत्रु हैं ? मेरे शत्रु का बल कितना है ? मैं कौन हूँ? मेरे मन्त्री कौन हैं ? कौन कौन से राजा मेरे पक्ष में हैं ? वे मुझ से विरक्त हैं अथवा अनुरक्त ? शत्रुत्रों ने उन्हें फोड़ तो नहीं लिया है ? शत्रु पक्ष के लोगों की क्या स्थिति है ? मेरे नगर अथवा राज्य में कौन मनुष्य श्रेष्ठ है ? कौन धर्म-कर्म का प्राश्रय लेता है ? कौन मूढ है ? किसका बर्ताव उत्तम है ? कौन दण्ड देने योग्य है और कौन पालन करने योग्य है ? किन मनुष्यों पर मुझे सदा दृष्टि रखनी चाहिये १इन सब बातों पर राजा को सदैव बिचार करते रहना चाहिये / राजा के लिये