________________ ( 128 ) कह कर क्षत्रिय के कर्तव्य-पालन से विमुख हो गया। इससे क्रुद्ध हो प्रमति ने राजा को वैश्य हो जाने का शाप दे दिया / एक सौ पन्द्रहवाँ अध्याय राजा को शाप देने के पश्चात् प्रमति ने उसके उन्मत्त मित्र नल को भी शाप दिया जिससे वह तत्काल ही जल कर राख हो गया। इस घटना को देख त्रस्त होकर राजा ने प्रमति से क्षमा माँगी। तब प्रमति ने कहा--"मेरा वचन मिथ्या नहीं हो सकता, वैश्य तो तुम को होना ही पड़ेगा। हाँ, जब कोई क्षत्रिय तम्हारी कन्या को बलात् ग्रहण करेगा तब उसी समय तम पुनः क्षत्रियत्व प्राप्त कर लोगे / शाप के वश वैश्यत्व को प्राप्त हुये वही क्षत्रिय राजा सुदेव मेरे पिता हैं / यह तो हुई मेरे पिता की बात / अब मेरी भी बात सुनिये / प्राचीन काल में गन्धमादन पर्वत पर राजर्षि सुरथ तपस्या करते थे / एक दिन उनके सामने ही बाज के मुख से छूटकर एक शारिका गिरी और मूञ्छित हो गयी। तपस्वी राजर्षि के मन में उसके प्रति कृपा का भाव आ गया / जब उसकी मूर्छा नष्ट हुयी तब उसके शरीर से मेरा जन्म हुअा और मेरा नाम कृपावती रखा गया / एक दिन अगस्त्य मुनि के परम तपस्वी भ्राता वहाँ आये / उन्हें मेरी सखियों ने वैश्य कह कर चिढ़ा दिया | इससे रुष्ट हो उन्होंने सखियों तथा मुझ को वैश्य कुल में पैदा होने का शाप दे दिया / जब मैंने अपनी निरपराधता बताकर उनसे क्षमा माँगी तब उन्होंने कहा-"सत्य है, तुम्हारा दोष नही है। अपनी दुष्टा सखियों के कारण तुमने यह शाप पाया है। अतः तुम शीघ्र ही इससे छुटकारा पा जावोगी। वैश्ययोनि में जब तुम राज्य के लिये अपने पुत्र को प्रबोधन करोगी तब तुम्हें अपनी पूर्व जाति का स्मरण हो जायगा और उसी जन्म में क्षत्रिय होकर पति के साथ दिव्य भोग प्राप्त करोगी। तो इस प्रकार जब न मेरे पिता वैश्य हैं और न मैं वैश्य हूँ तब मेरे सम्पर्क से अन्य लोग वैश्य कैसे हो सकते हैं ?" एक सौ सोलहवाँ अध्याय इस अध्याय की कथा यह है कि नाभाग ने अपनी पत्नी से उपर्युक्त सारा वृत्तान्त सुन लेने पर भी राज्य को स्वीकार नहीं किया / उसने कहा-"मैंने पिता की श्राज्ञा से राज्य का परित्याग किया है अतः उसे मैं स्वीकार नहीं कर सकता " / तब भनन्दन ने स्वयं ही राज्य को स्वीकार किया और विवाह करके