________________ ( 106 ) बहत्तरवाँ अध्याय इस अध्याय में बताया गया है कि राजा ने अपनी राजधानी में आकर ब्राह्मण से कहा “विप्र ! तुम तो अपनी पत्नी पाकर कृतार्थ हुये और मैं पत्नी के विना दुःखी हूँ / यदि किसी प्रकार पत्नी प्राप्त भी हो जाय तब भी सुख की आशा नही है क्योंकि वह मुझ से प्रतिकूल रहा करती है। यदि तुम उसे मुझ में अनुरक्त कर सकने का कोई उपाय कर सको तो मेरा बड़ा उपकार हो"। यह सुन ब्राह्मण ने राजा से मित्रविन्दा नाम की इष्टि करायी और जब वह इष्टि सविधि पूर्ण हो गई तब ब्राह्मण ने राजा से कहा “अब आप की पत्नी श्राप में पूर्ण अनुरक्त रहेगी अतः श्राप उसे प्राप्त करने का यत्न कीजिये”। यह सुन राजाने सत्यप्रतिज्ञ, महाबलशाली उस राक्षस का स्मरण किया। राक्षस तत्काल ही उपस्थित होगया और राजा की आज्ञा से पाताल जा वहाँ से रानी को ला दिया। अब राजा ने उसे अपने में पूर्ण अनुरक्त पाया / रानी ने भी राजा को प्रसन्न जान कर कहा "राजन् ? मैं जिस नागकन्या के साथ रही वह मेरे ही कारण अपने पिता के शाप से गूंगी हो गई है अतः मुझे उससे उऋण करने के लिये उसका गूंगापन दूर कराने का कोई उपाय कीजिये। यह सुन राजा ने उस ब्राह्मण से पुन : प्रार्थना की। ब्राह्मण ने राजा की प्रार्थना मान सारस्वती नामक इष्टि की और सारस्वत सूक्तों का जप किया / अनुष्ठान पूरा होते ही नागकन्या की वाणी खुल गई / जब गर्ग ने नागकन्या को इसका रहस्य बताया तब वह राजा के नगर में जा अपनी सखी से मिली और कृतज्ञता प्रकट कर राजा से उसने कहाकि “राजन् ? मेरी सखी के गर्भ से तुम्हें एक पुत्र होगा जो औत्तम नाम से ख्यात होगा और मनु का पद प्राप्त कर नवीन मन्वन्तर का प्रवर्तन करेगा"। अध्यायान्त में बताया गया है कि श्रौत्तम मनु के इस उत्तम आख्यान का पठन और श्रवण करनेवाले मनुष्य को इष्टजनों से कभी वियोग नहीं होता / तिहत्तरवाँ अध्याय इस अध्याय में श्रौत्तम मन्वन्तर के देवता, इन्द्र, ऋषि, और राजवंश का परिचय दिया गया है जिसका उल्लेख इस निवन्ध में पहले किया जा चुका है। चौहत्तरवाँ अध्याय इस अध्याय में तामस मनु के जन्म उस मन्वन्तर के देवता, इन्द्र, ऋषि और राजवंश का वर्णन है / इसका उल्लेख भी इस निबन्ध में पहले हो चुका है / इस अध्याय में एक श्लोक मिलता है जैसे...........