________________ ( 84 ) मद और मान पर विजय, प्रजा से परिमित मात्रा में कर ग्रहण, समस्त प्रजाजनों में समदृष्टि, अधिकारानुरूप कर्तव्यों के पालन में प्रजाजनों का नियोजन तथा वर्णाश्रम धर्म के पालन पर बड़ा बल दिया गया है / इस अध्याय के ये श्लोक संग्राह्य हैंवत्स ! राज्येऽभिषिक्तेन प्रजारञ्जनमादितः / कर्तव्यमविरोधेन स्वधर्मस्य महीभृता // 4 // कामः क्रोधश्च लोभश्च मदो मानस्तथैव च | हर्षश्च शत्रवो ह्येते विनाशाय महीभृताम् / / 13 / / यथेन्द्रश्चतुरो मासान् तोयोत्सर्गेण भूगतम् / आप्याययेत्तथा लोकं परिहारैर्महीपतिः // 22 // मासानष्टौ यथा सूर्यस्तोयं हरति रश्मिभिः / सूक्ष्मेणैवाभ्युपायेन तथा शुल्कादिकं नृपः // 23 // वर्णधर्मा न सीदन्ति यस्य राज्ये तथाऽऽश्रमः / वत्स ! तस्य सुखं प्रेत्य परत्रेह च शाश्वतम् // 26 // वत्स ! राजा का सबसे पहला कर्तव्य है कि वह अपने धर्म का विरोध न करते हुये प्रजा को सब प्रकार प्रसन्न रखे || 13 // जिस प्रकार इन्द्र चार मास तक जल की वर्षा कर भूमि के प्राणियों का आप्यायन करते हैं उसी प्रकार राजा को सुखसाधनों की वर्षा कर प्रजावर्ग का आप्यायन करना चाहिए / / 22 // जिस प्रकार सूर्यदेव अपनी किरणों से पृथ्वी का जल थोड़ा थोड़ा करके श्राठ महीने में खींचते हैं उसी प्रकार राजा को कर श्रादि का ग्रहण बहुत सूक्ष्म ढंग से करना चाहिये // 23 // जिस राजा के राज्य में वर्णधर्म तथा अाश्रमधर्म का अवसाद नहीं होता उसे इस लोक तथा परलोक में सदैव सुख की प्राप्ति होती है / / 26 / / अट्ठाईसवाँ अध्याय इस अध्याय में ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र-इन चार वर्णों के तथा ब्रह्मचर्य, गार्हस्थ्य, वानप्रस्थ और संन्यास-इन चार आश्रमों के पृथक पृथक धर्मों का तथा सब वर्णों एवं पाश्रमों के सामान्य धर्मों का वर्णन किया गया है। अध्यायान्त में राजा को निर्देश दिया गया है कि वह अपने वर्ण और आश्रम