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________________ नमोत्थुणं लोगपइवाणं लोकप्रदीप को नमस्कार हे लोक प्रदीप, पूर्णज्ञानी, परमपुरुष ! मेरे भीतर के नैपथ्य में तुम्हारी परम ज्योति का स्पर्श हो । बाह्यलोक में बाह्यप्रकाश के लिए अनेक साधनों की खोजें हुई परंतु भीतर के प्रकाश को प्रज्ज्वलित करनेवाले में एकमात्र आप ही ज्योतिपुंज हो । भीतर का अंधकार आप के सिवा कौन दूर कर सकता है? दीपक को सजाने की तो मुझे भवांतरों से आदत है। आज भी मैंने बडी उमंग से मेरा दीप सजाया है। विविध प्रकार के तप, जप और अनुष्ठान से इस दिए का सुशोभन किया है परंतु प्रभु तेरी ज्योति का स्पर्श पाए बिना दीपक कैसे प्रज्ज्वलित हो सकता है ? वत्स! अप्प दीवो भव । - अपने दीपक खुद बनो। तुम स्वयं प्रकाश हो । किसी अन्य प्रकाश की प्रतीक्षा मत करो। प्रकाश प्रतीक्षा का नहीं स्पर्श दीक्षा का विषय है। मेरे और तुम्हारे बीच का भेद तोड दो। परदा खोल दो। तुम्हारी सहज और शाश्वत स्वरुप की अवस्था में प्रवेश करो। स्वयं में स्वयं के प्रकाश को प्रगट करो, अन्य को प्रकाशमय करने का सामर्थ्य तुममें है। वत्स! तुम्हारा भीतर भेद लो। भीतर के भीतर में प्रवेश करो। उस भीतर में हम एक ही है। ज्योत का स्पर्श कर ज्योतिर्मान हो जाओ। हे दिव्यलोक प्रदीप ! आप ही समस्तलोक़ के उजास, प्रकाश और विकास हो । आपको और आपके प्रकाश को नमोत्थुणं लोगपइवाणं मंत्र से नमस्कार हो । हे अनबूझ लोकदीप ! हमारे हृदय में एकबार प्रगट तो हो sopist fe verw जाओ। आपके प्रगट हो जानेपर मेरा आत्म दीपक जगत् के किसी भी संकल्प विकल्प के बवंडर में बूझ नहीं जाएगा। आपके दिव्य दीप का स्पर्श होते ही अनेक भव्य दीप एक साथ प्रगट हो जाऐंगे। 110
SR No.032717
Book TitleNamotthunam Ek Divya Sadhna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDivyaprabhashreeji
PublisherChoradiya Charitable Trust
Publication Year2016
Total Pages256
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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