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________________ महावीर की साधना का रहस्य हैं, जहां प्राण विशेष रूप से प्रकट होता है, जैसे – हृदय । हृदय या अनाहत चक्र का जो स्थान है, वहां प्राण बहुत प्रकट होता है । आयुर्वेद के मुख्य ग्रन्थ . चरक में लिखा है - हृदय ओज का परम स्थान है— 'तत्परस्थौजसः स्थानं ।' ओज का मतलब है प्राण । योग में जिसे प्राण कहा है, आयुर्वेद में वही है ओज । ओज अर्थात् शक्ति । प्राण अर्थात् शक्ति । वीर्य अर्थात् शक्ति । ये एक ही अर्थ को बताने वाले भिन्न-भिन्न शब्द हैं । ५८ यह प्राण हमारे जीवन में संचरित हो रहा है और सक्रियता ला रहा है । उसका मुख्य स्थान है— हृदय । उसका मुख्य स्थान है— नासग्र | उसका मुख्य स्थान है - नाभि । ये कुछ ऐसे स्थान हैं जहां पर प्राण स्फुट होता, प्रकट होता है । प्राण हमारा जीवन है । प्राण हमें गति देता है । प्राण हमारी सक्रियता है और प्राण के आधार पर ही हम सब कुछ करते हैं । करने से क्या लाभ है ? फिर योग की साधना का मार्ग निरोध करना, प्राण को निःस्पंद करना, यह बात क्यों ? यह उलटा क्रम क्यों ? बिलकुल उलटी बात है । जब हम ध्यान करने को बैठते हैं तो प्राण को विलीन करने का प्रयत्न करते हैं, प्राण को शान्त करने का प्रयत्न करते हैं क्योंकि मन को शान्त करना है, और जब तक प्राण शान्त नहीं होगा, मन शान्त नहीं होगा । मन को शान्त करने के लिए प्राण की गति को शिथिल करना है । प्राण की गति को शिथिल करने का मतलब जीवन की सारी क्रियाओं - प्रक्रियाओं को शिथिल करना है । इस सामान्य व्यवहार से साधक का एक उलटा क्रम है। जहां हर आदमी सक्रियता चाहता है, क्रियाशीलता चाहता है, कर्मठता चाहता है वहां साधक निष्क्रिय, निश्चित, स्थिर होकर बैठना पसन्द करता है । यह सारा उलटा व्यवहार है । क्या इसे आप पसन्द करेंगे ? यह क्यों ? फिर प्राण निरोध क्यों ? प्राण को यह एक बड़ा प्रश्न है । इस पर आपको भी सोचना है । आप लोग बैठे हैं। आपको जीना तो पसंद है । मैं समझता हूं कि हर आदमी को जीना पसंद है | आपको सामाजिक जीवन जीना है, जहां कि व्यापार करना है, कामना है, बड़ा बनना है और बहुत बातें करनी हैं। मुझे आश्चर्य होता है कि यह निकम्मेपन की बात आपके दिमाग में क्यों घुस आयी ? आप क्यों पसन्द करते हैं सामाजिक जीवन से, सक्रियता के जीवन से, शक्ति और कर्म के जीवन से हटकर निष्कर्म और अकर्म के जीवन में आकर बैठ जाना और अपने समय
SR No.032716
Book TitleMahavir Ki Sadhna ka Rahasya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragya Acharya, Dulahrajmuni
PublisherTulsi Adhyatma Nidam Prakashan
Publication Year1985
Total Pages322
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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