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प्राण
हम प्राणी हैं। प्राणी इसलिए हैं कि प्राणवान् हैं । हमारे पास प्राण हैं। प्राण होने के नाते हम प्राणी हैं। प्राण चला जाता है, प्राणी समाप्त हो जाता है। प्राण प्राप्त होता है, प्राणी बन जाता है। हमारा जीवन सारा का सारा प्राण है। यह प्राण क्या है और साधना की दृष्टि से इसका क्या महत्त्व है ? इस पर कुछ बात मैं प्रस्तुत करना चाहता हूं। . यह अंगुली हिल रही है। जिस दिन अंगुली हिलनी बन्द हो जाती है, और जिसकी भी बन्द हो जाती है, वह मृत घोषित हो जाता है। डॉक्टर कहते हैं कि वह मर गया । सामान्य लोग कहते हैं कि मर गया। प्राणी के दो रूप हमारे सामने हैं-एक जीवित और एक मृत । एक जीता हुआ और एक मरा हुआ। जीते प्राणी में और मरे हुए प्राणी में अन्तर क्या है ? यही अन्तर है कि उसकी अंगुली हिलती है और उसकी नहीं हिलती। उसमें धड़कन है उसमें नहीं है। उसमें स्पन्दन है और उसमें नहीं है। यह स्पन्दन ही प्राण है । यह धड़कन ही प्राण है और यह गतिशीलता ही प्राण है। प्राण का मतलब है स्पन्दन । हिलना-डुलना, चंचल होना यह है प्राण । स्पन्दन रुका, प्राणी मर गया। दो अवस्थायें हो गयीं-एक स्पन्दन अवस्था और एक निःस्पन्द अवस्था। ___ साधक क्या करता है ? वह स्पन्दन अवस्था में निःस्पन्द होना चाहता है। जीवन में मृत्यु का अनुभव करना चाहता है। और करता है । यह स्पंदन से निःस्पंदन की ओर गति है। यह सक्रियता से निष्क्रिया की ओर गति है । यह चंचलता से स्थिरता की ओर गति है । तो क्या प्राण साधक को इष्ट नहीं है ? क्या प्राण उसके लिए उपयोगी नहीं है ? यदि है तो फिर वह सस्पंद अवस्था से नि:स्पन्द अवस्था की ओर जाना क्यों चाहता है ? और यदि इष्ट नहीं है तो फिर मृत और साधक की अवस्था में अन्तर क्या होगा? प्राण को अर्थ है-स्पन्दन । प्राण कहां उत्पन्न होता है ? पता नहीं शरीरशास्त्र की दृष्टि से इसका क्या अभिमत है। किन्तु योग की दृष्टि से, साधना की दृष्टि से, यह अभिमत है कि प्राण उत्पन्न होता है तैजस के द्वारा। ऊष्मा के द्वारा