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चतुर्थ संस्करण
प्रस्तुत ग्रन्थ का यह चौथा संस्करण है। इस दुनिया में कुछ आश्चर्य होते हैं । यह भी एक आश्चर्य है कि असंस्कार के लिए संस्कार का आलंबन लेना होता है । यदि कोई मनुष्य सहज ही संस्कार-शून्य हो जाए तो उसके लिए किसी संस्करण की जरूरत नहीं होती। किन्तु सहज ही ऐसा नहीं होता, इसलिए संस्करणों की जरूरत होती है। उसी जरूरत की पूर्ति प्रस्तुत ग्रन्थ कर रहा है, इसीलिए इसका चौथा संस्करण प्रस्तुत हो रहा है।
युवाचार्य महाप्रज्ञ
आमेट २५ जुलाई, १९८५