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शरीर का संवर
था और वह दृढ़ता के साथ इस बात का प्रतिपादन कर रहा था कि मैंने कोई पक्षपात नहीं किया है । राजा ने देखा कि अब प्रमाण चाहिए ।
राजा ने चार पत्र निकाले । मंत्री से कहा कि पहला पत्र पढ़ो। उसमें कुशलक्षेम के साथ ही यह भी लिखा था कि आप आने वाले हैं, इसलिए वहां से हमारे लिए एक बढ़िया नूपुर लेते आएं। दूसरी रानी का पत्र पढ़ा तो उसमें हार की मांग थी । तीसरी रानी का पत्र पढ़ा तो उसमें बाजूबन्ध की मांग थी । चौथा पत्र पढ़ा गया तो उसमें किसी चीज की मांग नहीं थी । उसमें लिखा था - " - "प्रिये ! मुझे कुछ नहीं चाहिए। आपको गये हुए बहुत दिन हो गये हैं । आप ही मेरे लिए सब कुछ हैं । मुझे केवल आप चाहिए, और कुछ भी नहीं चाहिए। आप जल्दी चले आएं।"
राजा ने पूछा, "मैंने क्या अन्याय किया ? जिसने नूपुर मांगा था, उसको नूपुर मिला। जिसने हार मांगा था, उसको हार मिला। जिसने बाजूबन्ध मांगा था, उसको बाजूबन्ध मिला। जिसने मुझे मांगा था, उसे मैं मिल गया । जिसे मैं मिल गया बसे मेरी सारी सम्पत्ति मिल गयी । अब आप ही कहिए कि मैंने अन्याय किया या न्याय किया ?" अब शायद आप भी सोचेंगे कि राजा ने न्याय किया । जिसने जो मांगा था, वह उसे मिल गया । जिसने कुछ नहीं मांगा, उसे सब कुछ मिल गया । आप ठीक समझिए, जो जैसा मांगता है, उसे वैसा ही मिलता है और जो कुछ नहीं मांगता, उसे सब कुछ मिल जाता है ।
साधना की दो दृष्टियां हैं - एक चित्त-पर्याय का निर्माण और दूसरी चित्तातीत अवस्था । चित्त-पर्याय का निर्माण ठीक तीन रानियों की बात थी । कोई साधक चाहता है कि मैं अमुक बन जाऊं, कोई चाहता है कि मैं अमुक बन जाऊं । यह चित्त-पर्याय के निर्माण की अवस्था है । यहां सारी मांगें समाप्त हो जाती हैं । भगवान् महावीर की साधना पद्धति चित्तातीत साधना - पद्धति है, जिसका मूल है विकल्प की शून्यता । बनना कुछ नहीं है । अपने अस्तित्व तक पहुंच जाना है । अपने आप तक पहुंच जाना है। जहां अपना अस्तित्व पूर्णरूपेण प्रकट होता है, वहां तक पहुंच जाना है । इसके लिए भगवान् ने संवर-साधना का प्रतिपादन किया ।
साधनाएं दो प्रकार की हैं - एक चित्त पर्याय का निर्माण, जो निर्जरा की साधना है; एक चित्तातीत का निर्माण, जो संवर की साधना है ।
महावीर ने चित्तातीत साधना को मुख्यता दी ।
संवर को उन्होंने साधना