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________________ जागरिका बदलने के लिए पर्याप्त होंगे। इसका अर्थ होगा-जो निर्जरापेक्षी है, उसे मध्यस्थ होना चाहिए, मध्यमार्ग (सुषुम्ना) में स्थित होना चाहिए । दूसरा वाक्य है-'पणया वीरा महावीहिं'-महापुरुष महावीथि पर चल पड़े हैं । मैं पूछना चाहता हूं कि यह 'महावीथि' क्या है ? यह राजमार्ग या बड़ा मार्ग क्या है ? जहां सुषुम्ना के, कुंडलिनी के जो नाम बताये जाते हैं, उनमें कुंडलिनी या सुषुम्ना का एक नाम है महापथ । हठयोग-प्रदीपिका आदि ग्रंथों में कुंडलिनी के जो दस-बीस नाम गिनाए गए हैं, उनमें एक का नाम है महापथ । यह महापथ और महावीथि क्या एक नहीं है ? यानी वीर पुरुष वे हैं जो महावीथि पर चल पड़े हैं, महामार्ग पर चल पड़े हैं। मैं समझता हूं कि जब हमारी साधना की गहराइयां थीं, उस समय जो संकेत और जो शब्द हमें प्राप्त थे, उनकी विस्मृति हो जाने पर उनका अर्थ भी बदल गया । जब मैं अपने मध्यवर्ती आचार्यों को देखता हूं तो मुझे लगता है कि उन्होंने बहुत काफी लिखा है सुषुम्ना पर या मध्यवर्ती मार्ग पर । प्राण, अपान पर इतना लिखा है कि जब तक हम उसे नहीं पकड़ लेते, हजार प्रयत्न करें, हम मन और उसकी चंचलता का विलय नहीं कर सकते। और आप यह भी निश्चित मानिए कि इन्द्रिय और मन की चंचलता मिटे बिना सम्यक्त्व प्राप्त हो जाए, ऐसा सम्भव नहीं लगता। इन सारे सन्दर्भो के प्रसंग में मुझे स्पष्ट लगता है कि यह विषय जैन आगमों और जैन साधना पद्धति द्वारा बहुत समर्थित है। • वासना की शुद्धि हुए बिना चित्त की शुद्धि कैसे हो सकती है ? वासना कोई मूल कषाय नहीं है । वह कषाय को बहुत थोड़ा-सा सुलगाने वाला कषाय है । यानी उप-कषाय है। मूल तो है राग और द्वेष । राग और द्वेष होता है, इसलिए वासनाएं हो जाती हैं। उनका स्थान नीचे रह जाता है । लेकिन एक बात जरूर है कि जब तक हम मनःचक्र या विशुद्धि चक्र को पूरा सक्रिय नहीं बना लेते, तब तक उनका भी पूर्ण विलय नहीं होता। क्योंकि जब तक इन्द्रिय और मन की चंचलता नहीं मिटती, वे भी पूर्णतः नहीं मिट सकते । उनको मिटाने के लिए निश्चित ही मनःचक्र और विशुद्धि-चक्र पर ध्यान करना होगा। . अभी आपने जागरण की प्रक्रिया बतायी। क्या उसी के द्वारा सम्यक्त्व की प्राप्ति होती है या दूसरा भी मार्ग है ? यह कोई जरूरी नहीं कि उसी प्रक्रिया से ही उसका जागरण हो । मार्ग
SR No.032716
Book TitleMahavir Ki Sadhna ka Rahasya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragya Acharya, Dulahrajmuni
PublisherTulsi Adhyatma Nidam Prakashan
Publication Year1985
Total Pages322
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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