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प्राणायाम : एक ऐतिहासिक विश्लेषण
है, वह सम्यसिद्ध को प्राप्त करता है । "
मनोविज्ञान के अनुसार श्वास नैसर्गिक प्रवृत्ति है । वह प्रयत्न किए बिना ही आता-जाता है | किन्तु चित्त के अभाव में यह स्थिति नहीं रहती । ध्याता जब निश्चितीकरण की भूमिका में आरूढ़ होता है तब चित्त का अभाव हो जाता है । उसके अभाव में श्वास का भी अभाव हो जाता है । वह प्राणायाम की विशिष्ट भूमिका है ।
चर्चित विषय को निष्कर्ष की भाषा में इस प्रकार प्रस्तुत किया जा सकता
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१. जैन आचार्य तीव्र प्राणायाम के समर्थक नहीं थे । वे उसे मानसिक एकाग्रता का हेतु नहीं मानते थे ।
२. सूक्ष्म प्राणायाम का समर्थन ही नहीं, अभ्यास भी करते थे ।
३. सूक्ष्म प्राणायाम की परम्परा उत्तरवर्ती ग्रन्थों में ही नहीं, आगमतुल्य ग्रन्थों में भी प्राप्त होती है । भद्रबाहु स्वामी ने सूक्ष्म प्राणायाम के साथ धर्म्य और शुक्लध्यान करने की विधि का निर्देश किया है ।
४. श्वास की सामान्य प्रक्रिया का अभ्यास कुछेक मुनि नहीं करते थे । किन्तु प्रायः सभी करते थे और विशिष्ट प्रक्रियाओं का अभ्यास विशिष्ट ज्ञानी मुनि करते थे ।
५. दीर्घकालीन कुम्भक या उच्छ्वासनिरोध सामान्य भूमिका में निषिद्ध था । चतुर्दश पूर्वी मुनि या वैसे शक्ति-संपन्न मुनि ही उसके लिए अधिकारी होते थे । आवश्यक निर्युक्तिगत उच्छ्वास निरोध का निषेध साधारण शक्ति वाले अधिकारी तथा चामत्कारिक प्रलोभनों में फंस जाने वाले अल्पश्रु त मुनियों के लिए ही किया गया प्रतीत होता है ।
इन निष्कर्षो के आधार पर हम जैन परम्परा में प्राणायाम की आज विस्मृत किन्तु चिरंतन पद्धति को अस्वीकृति नहीं दे सकते ।
१. यशस्तिलकचंपू ३९ :
मन्दं मन्दं क्षिपेद् वायुं मन्दं मन्दं विनिक्षिपेद् ॥ न क्वचिद् वार्यते वायुः, न च शीघ्रं प्रमुच्यते ॥७१६|| पवन - प्रयोग - निपुणः, सम्यक् - सिद्धो भवेदशेषज्ञः ।। ६०३ || २. ध्यानविचार, नमस्कार स्वाध्याय, पृ० २४३ :
चित्तं त्रिकालविषयं, चिंतनं तदभाव उच्छ्वासाभावहेतुः । ३. आवश्यक निर्युक्ति १५१४ : आवश्यक नियुक्ति अवचूर्णि, पृ० २२१ : ताव हुमाणुपाणू, धम्मं सुक्कं च भाइज्जा ॥