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प्राणायाम : एक ऐतिहासिक विश्लेषण
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- ध्यान की साधना की थी । यह ध्यान बारह वर्षों से सिद्ध होता है ।' महाप्राण ध्यान के सिद्ध हो जाने पर प्राण इतना सूक्ष्म हो जाता है कि चौदह पूर्वो की विशाल ज्ञान - राशि का ( सूत्र और अर्थ दोनों दृष्टियों से ) एक मुहूर्त्त में पुनरावर्तन किया जा सकता है ।" महाप्राण ध्यान से सूक्ष्म आन-प्राणलब्धि प्राप्त हो जाती है, उससे पुनरावर्तन की कल्पनातीत क्षमता विकसित हो जाती है । "
उक्त उद्धरणों से स्पष्ट है कि जैन परम्परा में महाप्राण ध्यान प्रचलित रहा है । यह ध्यान प्राणायाम के साथ ही किया जाता है । चित्त और श्वास का परस्पर घनिष्ठ सम्बन्ध है। जहां चित्त है वहां श्वास है और जहां श्वास है वहां चित्त है । चित्त और श्वास में दूध और पानी जैसी व्याप्ति है ।
भस्त्रिका आदि तीव्र श्वास वाले प्राणायामों का ध्यान से सम्बन्ध नहीं है । वे शरीर - सम्बद्ध हैं। उनसे नाड़ी शोधन होता है, इसलिए परोक्षत: वे ध्यान में सहायक हो सकते हैं, किन्तु उनका प्रत्यक्ष सम्बन्ध शरीर से ही है । प्राण को सूक्ष्म करने वाले प्राणायाम ध्यान से सम्बन्धित हैं । अतः का अभ्यास करने वाला कोई भी व्यक्ति प्राणायाम की उपेक्षा नहीं कर
ध्यान
सकता ।
ध्यान और प्राणायाम की परस्पर संवादिता है । चित्त एकाग्र होता है, और प्राण अपने आप सूक्ष्म हो जाता है । तब चित्त अपने आप एकाग्र हो जाता है | आचार्य हेमचन्द्र मन को चंचल बनाने वाले प्राणायाम के पक्ष में
१. परिशिष्ट पर्व । ६१ :
सौप्युवाच महाप्राणं ध्यानमारब्धमस्ति यत् । साध्यं द्वादशभिर्वर्षेः, नागमिष्याम्यहं ततः ॥
२. परिशिष्ट पर्व । ६२ :
महाप्राणे हि निष्पग्ने, कार्ये कस्मिश्चिदागते । सर्वपूर्वाणि गुण्यन्ते, सूत्रर्थाभ्यां मुहूर्त्ततः ॥ ३. ओघनिर्मुक्ति ५२१, वृत्ति :
मुहूर्त्तमात्रं करोति जघन्यतो गाथात्रयं पठति, उत्कृष्टतश्चतुर्दशापि पूर्वाणि सूक्ष्माणप्राणलब्धिसंपन्न परावर्तयति ।
४. योगशास्त्र ५।२ :
मनो यत्र मरुत्तत्र, मरुद् यत्र मनस्ततः । अतस्तुल्यक्रियावेतौ, संवीतौ क्षीरनीरवत् ॥