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________________ २८२ महावीर की साधना का रहस्य से आज भी शिरोवेदना को मिटाया जा सकता।" इस प्रकार की घटनाओं से पता चलता है कि आत्मज्ञान, विपश्यना या निर्जरा की धारा चमत्कार की दिशा में मुड़ने लगी। मुझे लगता है कि आचार्य कुन्दकुन्द ने निश्चय तप पर बहुत बल दिया। उसके पीछे भी एक रहस्य है। उनके सामने यह दिशा परिवर्तन प्रारम्भ हो गया था । जैन मुनि व्यवहार की ओर अधिक मुड़ रहे थे । संघ को अधिक महत्त्व दिया जाने लगा था। यह माना जाने लगा था कि संघ रहेगा तो धर्म रहेगा, नहीं तो नहीं रहेगा। व्यवहार जब इतना प्रबल हो जाए कि संघ की सुरक्षा के लिए कुछ भी किया जा सकता हैचक्रवर्ती की सेना को भी चूर-चूर किया जा सकता है, तब धर्म मुख्य नहीं रहता। जब संघ मुख्य और धर्म या अध्यात्म गौण हो जाता है, उस समय निश्चित नय पर बल देना स्वाभाविक हो जाता है । अध्यात्म की दिशा में चिन्तन करने वाले आचार्यों का मत यह रहा—निर्जरा या परमार्थ का दृष्टिकोण यदि गौण हो जाए तो केवल विद्या और मंत्र के चमत्कार के द्वारा धर्म की रक्षा नहीं हो सकती। पर सचाई यह है कि व्यवहार के प्रति जितना आकर्षण होता है उतना परमार्थ के प्रति नहीं होता। वीर निर्वाण की चौथी-पांचवीं शताब्दी के बाद ध्यान का स्थान विद्याएं लेती गईं। विद्या साधना के रहस्य प्रकट होते गए और ध्यान की बात हाथ से छूटती गई । फिर भी यह नहीं कहा जा सकता कि ध्यान की परम्परा लुप्त हो गई । कुछ महामुनि ध्यान की धारा पर भी बल देते रहे । जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण ने 'ध्यानशतक' की रचना की। वह बहुत ही महत्त्वपूर्ण ग्रंथ है । उसमें ध्यान की मौलिक पद्धति सूरक्षित है । कोई मिश्रण नहीं है। पूज्यपाद ने 'समाधितंत्र' और 'इष्टोपदेश–ये दो ग्रंथ लिखे । आचार्य कुन्दकुन्द, जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण और पूज्यपाद के ग्रन्थों में ध्यान की मौलिक परम्परा सुरक्षित है । वह किसी अन्य परम्परा से प्रभावित नहीं है । १. प्रभावक चरित, पादलिप्त सूरी चरितम्, पृ० ३०; श्लोक ५८-६० : . तर्जनों प्रभुरप्येष, त्रिः स्वजानावचालयत् । भूपतेर्वेदना शान्ता, तस्य किं दुष्करं प्रभोः ।। . जह जह पएसिणि, जाणुयंमि पालित्तउ भमाडेइ । तह तह ते सिखेयणा, पणस्सई मुरण्डरायस्स । . मन्त्ररूपामिमां गाथां, पठन् यस्य शिरः स्पृशेत् । शाम्येत वेदना तस्याद्यापि मूर्नोऽतिदुर्धरा ।।
SR No.032716
Book TitleMahavir Ki Sadhna ka Rahasya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragya Acharya, Dulahrajmuni
PublisherTulsi Adhyatma Nidam Prakashan
Publication Year1985
Total Pages322
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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