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________________ २७६ महावीर की साधना का रहस्य ध्यान की योग्यता प्राप्त करने के लिए है और अनित्य, अशरण आदि भावना वीतराग भाव की पुष्टि के लिए है । वह ध्यान के मध्यवर्ती काल में की जाती है। जब हम ध्यान करते हैं तब निरन्तर ध्यान नहीं कर सकते । एक विषय पर हमारा मन निरन्तर प्रवाहित नहीं होता। बीच-बीच में विकल्प आते हैं और ध्यान की धारा टूट जाती है। उस समय हमें अनित्य, अशरण आदि भावना का प्रयोग करना चाहिए। यह मध्यकालीन भावना है । ज्ञान आदि भावना प्रारम्भकालीन है। अज्ञानी मनुष्य ध्यान नहीं कर सकता। जो सम्यक्दर्शी नहीं है वह ध्यान नहीं कर सकता। शम, संवेग, निर्वेद, अनुकंपा और आस्तिक्य के होने पर ही ध्यान के प्रति आकर्षण उत्पन्न होता है। जिसमें चारित्र नहीं है, शील और सहिष्णुता नहीं है, वह ध्यान नहीं कर सकता । जिसमें वैराग्य नहीं है, राग-द्वेष पर विजय पाने की भावना नहीं है, वह ध्यान नहीं कर सकता । ध्यान की दीर्घकालीन साधना के लिए इन सबका होना जरूरी है। ___ध्यान का उद्देश्य है-वीतराग चेतना का उदय । अपनी चेतना को शुद्ध रूप में देखना विपश्यना है। इसे प्रेक्षा भी कहा जाता है। राग-द्वेष को क्षीण करने के लिए अनुचिन्तन करना अनुप्रेक्षा है । अनित्य, अशरण आदि भावना को अनुप्रेक्षा कहा जाता है । प्रेक्षा के साथ होने वाली या प्रेक्षा के बाद होने वाली अनुप्रेक्षा । पदार्थों के संयोग की अनित्यता का अनुचिन्तन, आत्मा की एकता का अनुचिन्तन, बाहर में अत्राण का अनुचिन्तन—यह अनुचिन्तन हमारे ध्यान की धारा को वीतरागता की दिशा में ले जाता है, इसलिए यह उसका अनिवार्य अंग है। यह उसके पहले और पीछे-दोनों बिन्दुओं में होता है। • कायोत्सर्ग में भी भेव-विज्ञान होता है और विपश्यना भी पहुंचते-पहुंचते मेवविज्ञान तक पहुंच जाती है, शरीर को पार कर चैतन्य तक पहुंच जाती है। फिर कायोत्सर्ग और विपश्यना-ये दो क्यों ? विपश्यना की योग्यता कायोत्सर्ग के द्वारा प्राप्त होती है। शरीर की शिथिलता साधना की पहली शर्त है । विपश्यना ध्यान है । ध्यान का अर्थ है स्थिरता और विपश्यना का अर्थ है देखना । जैन पद्धति में ध्यान तीन भागों में विभक्त है—कायिक ध्यान, वाचिक ध्यान और मानसिक ध्यान । ध्यान का अर्थ केवल मन को रोकना ही नहीं है। जो लोग केवल मन-निरोध को ध्यान मानते हैं वे शायद पूरी बात नहीं कहते । प्रथम ध्यान है-शरीर की
SR No.032716
Book TitleMahavir Ki Sadhna ka Rahasya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragya Acharya, Dulahrajmuni
PublisherTulsi Adhyatma Nidam Prakashan
Publication Year1985
Total Pages322
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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