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________________ चारित्र समाधि २५७ बांधकर खड़े होते हैं । चारित्र बहुत बड़ा संघर्ष है, युद्ध है । जो व्यक्ति चारित्र को स्वीकार करता है, महायुद्ध में कूद पड़ता है, संघर्ष को स्वीकार करता है। वह जीवन के संघर्ष में आ जाता है। किसी भाई ने कहा था कि जब ध्यान करने बैठता हूं तब अधिक चंचलता आती है । आनी चाहिए। यही तो संघर्ष है । आपने ध्यान प्रारम्भ किया और आपकी चंचलता न बढ़े तो इसका मतलब है कि आप ध्यान में गए ही नहीं। यह तो संघर्ष का पहला चिह्न है कि आप संघर्ष में उतरे हैं और पहले ही क्षण तगड़ा प्रतिरोध हो रहा है, कड़ा संघर्ष हो रहा है । चंचलता इतनी तीव्रता से आ गई कि आपको भान होने लगा कि भीतर भी खराबी है; अन्यथा आपको भान ही नहीं होता। जो संयम नहीं करता उसे यह अनुभव नहीं होता कि मेरे भीतर भी वासना भी है, क्रोध भी है, आवेग भी है, आवेश भी है। खतरनाक मोड़ आते हैं । आप यह न मानें कि साधना करने वाला पहले ही दिन विजय पा लेता है। और अगर यह कोई ढोंग करता है कि मैंने साधु जीवन या श्रावक जीवन की साधना प्रारम्भ की और मैं तो पार पा चुका, तो यह बहुत बड़ा ढोंग होगा। साधना के प्रारम्भ का अर्थ है-संघर्ष के मोर्चे पर खड़े होना, संघर्ष में उतरना । इतने मोड़ आते हैं कि उसे लगता है-अब दबाया जा रहा हूं, अब नष्ट होता जा रहा हूं। संघर्ष तो अभी प्रारम्भ हुआ ही है। जब उसका मध्य-बिन्दु आएगा तब ऐसा लगेगा कि कहीं आप नीचे गिरते जा रहे हैं। बड़े-बड़े साधकों का यह अनुभव है कि आगे की स्थिति में जैसे ही वे आगे बढ़ने लगे कि उन्हें ऐसा अनुभव हुआ कि वे पीछे गिरते जा रहे हैं। विवेकानन्द ने अपने जीवन के एक प्रसंग में लिखा है-'ध्यान की अमुक अवस्था को पार करने पर यह स्पष्ट अनुभव होने लगा कि वासनाएं भयंकर आक्रमण कर रही हैं । अन्दर के विकार इतने उभरकर आ रहे हैं कि उन्हें संभाल पाना कठिन-सा हो रहा है।' महावीर के प्रसंगों में यह चर्चित है कि देवताओं ने उन्हें बहुत कष्ट दिये । यह एक दृष्टिकोण है । दूसरा दृष्टिकोण यह है कि देवता आये या नहीं, इसे छोड़ दें, किन्तु वासनाओं के संघर्ष, दबे हुए संस्कारों के संघर्ष तो निश्चित ही आए । उन्होंने महावीर को सताना प्रारम्भ किया, अनुकूल रूप में भी और प्रतिकूल रूप में। बहुत सताया, बहुत सताया । पौराणिकता की भाषा में कहें तो देवताओं ने और योग की भाषा में कहें तो संस्कारों ने उनको सताया। दोनों में कोई अन्तर नहीं है। मूल बात यह है कि हम जैसे-जैसे संघर्ष को तेज करते हैं, महायुद्ध की ज्वाला को जैसे-जैसे
SR No.032716
Book TitleMahavir Ki Sadhna ka Rahasya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragya Acharya, Dulahrajmuni
PublisherTulsi Adhyatma Nidam Prakashan
Publication Year1985
Total Pages322
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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