________________
तप समाधि
२४३
भेद की बात समाप्त हो जाती है। सेवा किसी दूसरे की नहीं होती, सेवा वास्तव में अपनी होती है। दूसरे शब्दों में कहें तो ममत्व का विसर्जन ही वास्तव में सेवा है।
चौथा क्रम है-स्वाध्याय का। यह भी मानसिक भूमिका पर होता है । मन के दो कार्य हैं-कल्पना और तत्त्व-विचार । जिस व्यक्ति का मानसिक विकास समुचित मात्रा में नहीं होता, वह तत्त्व-विचार नहीं कर सकता। उसकी तात्त्विक भूमिका प्रशस्त नहीं होती। तत्त्व-विचार वही कर सकता है जिसका मानसिक विकास पर्याप्त मात्रा में हो जाता है।
स्वाध्याय है तत्त्व-विचार के द्वारा सत्य का बोध करना, अन्तर्बोध करना। स्वाध्याय का अर्थ पुस्तक पढ़ना मात्र नहीं है। वह अनुप्रेक्षा तक चलता है। भावना भी उसमें सन्निहित है। शब्द या भावना के माध्यम से गहराई में उतरकर सत्य तक पहुंच जाना, सत्य का आंतरिक निरीक्षण करना,
आंतरिक बोध करना, यह है स्वाध्याय ।। ____ एकाग्रता और निर्विचार—ये दोनों मानसिक क्रियाएं हैं। ये मन और बुद्धि के स्तर पर घटित होती हैं, अर्थात् मन भी स्थिर और बुद्धि भी स्थिर । ये दोनों मानसिक चैतन्य और बौद्धिक चैतन्य पर घटित होती हैं, इसलिए आंतरिक हैं, बाहरी नहीं हैं। इनमें भी बाहर का योग होता है। इनमें शरीर और वाणी का सम्बन्ध रहता है, किन्तु इतना गौण होता है इनका योग कि इनका सारा बहाव अन्दर की ओर होता है, बाहर की ओर नहीं ।
पांचवां क्रम है-ध्यान का। इस विषय में हम अन्यत्र विस्तार से बता चुके हैं। ____ छठा क्रम है-व्युत्सर्ग का । इसका अर्थ है-विसर्जित करना। विसर्जन की बात बहुत आन्तरिक है । यह सारी आन्तरिक प्रक्रिया है। छोड़ना बड़ा कठिन है । इसके साथ-साथ साधना की पद्धति जुड़ी हुई है । शरीर को विसर्जित करना कायोत्सर्ग है । यह साधना की पद्धति है। किन्तु इसके साथ और भी कुछ महत्त्वपूर्ण बातें जुड़ी हुई हैं । संसार का व्युत्सर्ग करना, कषाय का व्युत्सर्ग करना-ये सब इसी के साथ जुड़े हुए हैं । काया का विसर्जन तो ठीक बात है । व्यक्ति लेट गया, शरीर को ढीला छोड़ दिया, शिथिल कर दिया, यह काया का विसर्जन हो गया। किन्तु जब तक शरीर के प्रति ममत्व का भाव बना रहता है, तब तक काया का पूरा विसर्जन नहीं होता, पूरा कायोत्सर्ग नहीं होता । कायोत्सर्ग की दो अपेक्षाएं हैं