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तप समाधि
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स्थिति का निर्माण करते हैं । इन्द्रियों का भी इसमें योग होता है और मन का भी योग होता है । उन सारी स्थितियों का पूरा विश्लेषण कर, उन सब को एक साथ जोड़ें तब यह बाह्य तप बनता है । मान्तरिक तप
बाहर और भीतर कोई अलग-अलग नहीं है। यह हमारे समझने की व्यवस्था मात्र है । केला और उसका छिलका कोई अलग-अलग नहीं है। छिलका न हो तो केला नहीं हो सकता और केवल छिलका ही हो तो भी केला नहीं हो सकता। दोनों चाहिए । एक सुरक्षा है जो निर्माण को आगे बढ़ाती है और एक निर्मिति है जो छिलके को भी मूल्य दे देती है। यदि गूदा न हो तो छिलके का मूल्य नहीं हो सकता । भीतर में कुछ सार अधिक होता है. इसलिए छिलके को मूल्य मिल जाता है । छिलका होता है तभी भीतर में कुछ हो सकता है । इसलिए बाहर और भीतर-दोनों इतने जुड़े हुए हैं कि हम उन्हें काटकर नहीं देख सकते, व्याख्या नहीं कर सकते । ___ बाहर का ताप और भीतर का तप-ये भी कटे हुए नहीं हैं । कोई बाहर का तप करेगा, उसके साथ भीतरी भाग भी होगा, भीतरी तप होगा, आन्तरिक तप होगा । जो भीतर का करेगा, उसके साथ बाहर का भी कुछ न कुछ जुड़ा रहेगा । किन्तु विभाजन इसलिए कि
जहां मानसिक स्तर पर साधना होती है वह आन्तरिक तप है और जहां शरीर के स्तर पर साधना होती है वह बाह्य तप है, बाहर का तप है । मानसिक स्तर की साधना कठिन है । यह साधना विकास की अगली भूमिका में प्रारम्भ होती है । विकास की पहली भूमिका में केवल शरीर पर ही साधना होती है और योग्यता भी उतनी ही विकसित होती है। स्थूल शरीर से चलकर हम प्राण शरीर तक पहुंच जाते हैं, उसे साध लेते हैं। हमारा प्राण शरीर शक्तिशाली हो जाता है। किन्तु मानस शरीर उतना विकसित नहीं होता । जैसे ही दृश्य शरीर-स्थूल शरीर और प्राण शरीर की साधना आगे बढ़ती है, मानस शरीर का विकास प्रारम्भ हो जाता है। वह उचित भूमिका में आ जाता है, परिवर्तन हो जाता है । यह है स्वभाव-परिवर्तन की प्रक्रिया।
कोई व्यक्ति उपवास करता है । आवश्यक नहीं कि उसमें ऋजुता भी हो । उसमें माया और वंचना भी हो सकती है । माया के कारण भी वह उपवास करता है । उपवास करते समय भी माया हो सकती है। किन्तु प्रायश्चित्त