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________________ २२६ महावीर की साधना का रहस्य समर्पित होगा । वह कहीं भी राग-द्वेष के प्रति समर्पित नहीं होगा । महावीर ने कहा - ज्ञानयोगी 'अणिस्सियोवस्सिय' होता है, किसी के प्रति झुका हुआ नहीं होता । वह केवल सत्य के प्रति झुका हुआ होता है । वह न सिद्धांत के प्रति, न शास्त्रों के प्रति और न किसी के वचन के प्रति झुका हुआ होता है । वह केवल सत्य के प्रति समर्पित होता है । जो इतना साधनाशील होता है, वही ज्ञानयोगी होता है । यह बड़ी साधना है - राग-द्वेष से मुक्त होने की साधना है, संयम की साधना है, तटस्थता की साधना है, पक्षपात से मुक्त रहने की साधना है, संयम की साधना है, तटस्थता की साधना है, पक्षपात से मुक्त रहने की साधना है, केवल सत्य शोध और सत्य - जिज्ञासा की साधना है । इस साधना में जाने वाला ज्ञान के रहस्यों को अनावृत कर देता है । • क्या साक्षीभाव, द्रष्टाभाव का अर्थ यही है कि हम देखते हैं, करते नहीं ? क्या नृत्य देखना क्रिया नहीं है ? यह द्रष्टाभाव कैसे ? गन्ध आती है उसे हम नहीं रोक सकते । यह इन्द्रिय का काम है । सुगंध आयी वहां तो राग उत्पन्न हो गया और जहां दुर्गन्ध आयी वहां द्वेष उत्पन्न हो गया । यह शुद्ध उपयोग या साक्षीभाव नहीं है । साक्षीभाव या द्रष्टाभाव यहां खंडित हो जाता है । किन्तु सुगंध या दुर्गन्ध आने पर हमें यथार्थ ज्ञान तो हो गया, हमने जान लिया कि यह सुगन्ध है और यह दुर्गन्ध, पर उसके साथ हमारी प्रियता या अप्रियता का भाव नहीं जुड़ा तो वह साक्षीभाव, द्रष्टाभाव या शुद्ध उपयोग है । इन्द्रिय विषयों को रोका नहीं जा सकता । उनके प्रति होने वाले राग-द्वेष को रोका जा सकता है । यही प्रतिसंलीनता है । यही साक्षीभाव है । यही शुद्ध उपयोग है । हम ऐसा कर सकते हैं । यह कठिन साधना अवश्य है । प्रियता और अप्रियता की सामग्री सामने हो और हमारा आकर्षण या अनाकर्षण न हो, यह साधना कठोर तो बहुत है । • शास्त्र को सत्य मानने पर सत्य के प्रति झुकाव कैसे होगा ? शास्त्र से ज्ञान लेना एक बात है और उसके प्रति झुकाव होना एक बात है । शास्त्र का अर्थ क्या है ? उसका अर्थ यह नहीं होता कि मैं मानूं वह तो शास्त्र और सब अशास्त्र । मेरे लिए एक शास्त्र हो सकता है, दूसरे के लिए दूसरा । मैं किसे शास्त्र मानूं और किसे अशास्त्र, यह मेरा वैयक्तिक प्रश्न है । किन्तु दुनिया के किसी भी ग्रन्थ से मैं सत्य प्राप्त करूं, वह मेरे लिए ग्राह्य हो जायेगा । उसमें पक्षपात नहीं कि अमुक में ही सत्य हो सकता है, दूसरे में नहीं । झुकाव की बात तो तब आती जब मैं यह मान लूं कि अमुक ग्रन्थ या
SR No.032716
Book TitleMahavir Ki Sadhna ka Rahasya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragya Acharya, Dulahrajmuni
PublisherTulsi Adhyatma Nidam Prakashan
Publication Year1985
Total Pages322
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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