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________________ २२४ महावीर की साधना का रहस्य आये । पुण्य का भाव भी न आये । शुद्ध का मतलब है—जहां शुद्ध भाव भी नहीं, पुण्य का भाव भी नहीं । यह संवर की स्थिति है । इस शुद्धता की स्थिति का क्रम निरन्तर चालू रहे, अभ्यास चालू रहे तो ज्ञान की समाधि प्राप्त होती है । चेतना को केवल शुद्ध व्यापार में रखना कोई साधारण बात नहीं है । आदमी बहुत जल्दी प्रभावित होता है घटनाओं से । सामने जो घटना आती है, उसी में बह जाता है । राग की आती है तो राग में और द्वेष की आती है तो द्वेष में बह जाता है । देखकर भी बह जाता है क्योंकि उसमें भावुकता है, संवेदनशीलता है । आदमी संवेदनशील होता है । साहित्य में संवेदनशीलता बहुत बड़ा गुण माना जाता है । कहीं भी कुछ घटित होता है, तो आदमी का मन संवेदना से भर जाता है । आदमी हर बात को अपने साथ जोड़ लेता है । यहां से कठिनाई प्रारंभ हो जाती है। इससे बचने के लिए उसे संवेदना से बचना होगा। इसलिए जो कोई भी सत्य का शोधक होगा, उसके लिए अनिवार्य शर्त है कि उसमें संयम का बल हो। जिसमें संयम का बल नहीं है, वह सत्य का शोधक नहीं हो सकता । क्योंकि जो सत्य का शोधक होता है, वह तटस्थ होता है, पक्षपात से मुक्त । जब उसके सामने प्रश्न आएगा कि अमुक तो माना हुआ तथ्य है । वह कहेगा-चाहे माना हुआ हो, पर सत्य यह है । ___ कुछेक वैज्ञानिकों के लिए कहा जा सकता है कि वे ज्ञान समाधि में थे । सब वैज्ञानिक नहीं, किन्तु कुछेक । अल्बर्ट आइंस्टीन के जीवन को देखने से स्पष्ट प्रतीत होता है कि वह ज्ञान की समाधि और योगी की स्थिति में था। वह साधक था । वह साधना का जीवन जी रहा था। उस समय उसके सामने एक प्रश्न आया-'इलेक्ट्रॉन क्या है ? वह तरंग है या कण ? कण स्थिर होता है और तरंग गतिशील । वास्तव में वह है क्या ?' 'इलेक्ट्रॉन न केवल स्थिर है और न केवल गतिशील । वह दोनों है।' यह स्थापना की आइंस्टीन ने । पहले ऐसा नहीं माना जाता था। आइंस्टीन ने कहा—'पहले के वैज्ञानिकों ने इसे कैसे माना, मैं नहीं कह सकता। पर इलेक्ट्रॉन कण और तरंग दोनों है । ये दोनों विरोधी अवश्य हैं । वह कण भी और तरंग भी कैसे हो सकता है, मैं नहीं जानता । पहले क्या माना जाता था, मैं नहीं जानता किन्तु ये दोनों-कण और तरंग सामने हैं, प्रत्यक्ष हैं । ऐसा घटित हो रहा है।' इस तथ्य की अभिव्यक्ति के लिए आइंस्टीन ने एक शब्द चुना-'क्वान्टा', जहां-- गतिशीलता भी है और स्थायित्व भी है । पहले क्या माना जाता था, स्पर में विरोध दिखाई दे रहा है-इन सबसे परे हटकर आइंस्टीन कहता है कि मैं
SR No.032716
Book TitleMahavir Ki Sadhna ka Rahasya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragya Acharya, Dulahrajmuni
PublisherTulsi Adhyatma Nidam Prakashan
Publication Year1985
Total Pages322
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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