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________________ २२० महावीर की साधना का रहस्य ज्ञप्ति होती है । जहां जानने के सिवाय कुछ भी नहीं होता, वह होता है कोरा ज्ञान। अज्ञान क्या होता है ? अज्ञान का मतलब जानना तो है, पर उसके साथ और कुछ जुड़ जाता है । उसके साथ राग-द्वेष, मोह, मद आदि-आदि जुड़ जाते हैं। जहां वे जुड़ते हैं वहां ज्ञान अज्ञान बन जाता है। ____ जो ज्ञानी होता है वह समाधि में रहता है । ज्ञानी को समाधि प्राप्त होती है । ज्ञान समाधि है, अज्ञान समाधि नहीं है । वह असमाधि है। वह ज्ञान, जिसके साथ राग-द्वेष, मोह आदि का सम्बन्ध है, वह ज्ञान समाधि नहीं है । समाधि वहीं है जहां केवल ज्ञान है, कोरा ज्ञान है, वेदना नहीं है। जहां ज्ञान और वेदन-दोनों हैं, वह अज्ञान है। आज के लोग शिक्षा के क्षेत्र में कहते हैं कि ज्ञान का यह परिणाम आ रहा है । ज्ञान का यह परिणाम नहीं है । यह परिणाम संवेदन के साथ आ रहा है । ज्ञान के साथ में संवेदन के जुड़े जाने से ही वही परिणाम आयेगा, जो आज आ रहा है । इससे भिन्न परिणाम नहीं हो सकता। जहां ज्ञान के साथ में संवेदन जुड़ जाता है, वहां वह ज्ञान नहीं रहता, संवेदन या अज्ञान बन जाता है । आज जो है वह संवेदन है, ज्ञान नहीं है। ज्ञान वही होगा जो कोरा ज्ञान है, केवल ज्ञान है, मिश्रण नहीं है । योगसार में लिखा है 'यथावस्तु परिज्ञान, ज्ञानं ज्ञानिभिरुच्यते । रागद्वषमदक्रोधेः, सहितं वेदनं पुनः॥' -जो वस्तु जैसी है, वैसा ज्ञान होना अर्थात् सत्य का बोध होना ज्ञान है । ज्ञान के साथ जब राग-द्वेष आदि जुड़ते हैं तब वह संवेदन बन जाता है, ज्ञान नहीं रहता। दोनों में यही अन्तर है । संज्ञा और ज्ञान में यही फर्क है। आहार, भय, मैथुन, परिग्रह, क्रोध, मान, माया, लोभ आदि-आदि संज्ञाएं हैं । ज्ञान का अर्थ है—केवल ज्ञान, कोरा ज्ञान । संज्ञा का अर्थ है-ज्ञान और वेदन का सम्मिश्रण । जब ज्ञान वेदन बनता है तब संज्ञा बन जाती है। जो कोरा ज्ञान है वह समाधि है । वेदन मिलते ही वह असमाधि बन जाती है। वेदान्त में एक शब्द है-द्रष्टा । द्रष्टाभाव ही ज्ञान समाधि है। ____तटस्थभाव, साक्षीभाव, द्रष्टाभाव और ज्ञानसमाधि-ये सब एकार्थक शब्द हैं । कोई अन्तर नहीं है । शब्दों का अन्तर है। द्रष्टाभाव का मतलब है-घटना घटित हो रही है, उससे अपने आपको अलग कर देना। उसमें लिप्त नहीं होना । कुछ भी घटित हो रहा हो, उसके साथ अपने ज्ञान के सूत्र
SR No.032716
Book TitleMahavir Ki Sadhna ka Rahasya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragya Acharya, Dulahrajmuni
PublisherTulsi Adhyatma Nidam Prakashan
Publication Year1985
Total Pages322
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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