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________________ ध्यान और कायोत्सर्ग हम जिस विश्व को देख रहे हैं वह कहीं स्थिर और कहीं तरंगित है। सूक्ष्म दृष्टि या सूक्ष्म उपकरणों से देखें तो पता चलेगा कि जो स्थिर दीख रहा है, वह भी तरंगित है । स्थिति और गति--दोनों वास्तविकताएं हैं पर स्थिति अव्यक्त और द्रव्यगत है, गति व्यक्त है। कोई भी गति द्रव्यशून्य नहीं है और कोई भी द्रव्य गतिशून्य नहीं है। गति स्वाभाविक भी होती है और दूसरे द्रव्य के योग से भी होती है । हम मनुष्य हैं । हमारे पास चार गतिशील तत्त्व हैं---शरीर, श्वास, वाणी और मन । प्रतिक्षण ये प्रकम्पित हैं। ये नई ऊर्मियों को लेते हैं और पुरानी ऊर्मियों को छोड़ते हैं। हमारा आकाश-मंडल इन ऊर्मियों से ऊमिल है, इनके प्रकम्पनों से प्रकम्पित है । ये प्रकम्पन हमारे जीवन का संचालन करते हैं। हमारे द्वारा छोड़े हुए प्रकम्पन दूसरों को प्रभावित करते हैं। दूसरों के द्वारा छोड़े हुए प्रकम्पन हमें प्रभावित करते हैं। हम संक्रमण का जीवन जीते हैं, जहां परस्पर एक-दूसरे को प्रभावित करता है। अप्रभावित कोई नहीं है । पूर्णतः स्वतंत्र कोई नहीं है । अप्रभावित स्थिति और स्वतन्त्रता अप्रकंपन की दशा में ही प्राप्त हो सकती है । ध्यान उसका मुख्य साधन है। प्रकंपन से अप्रकम्पन की ओर जाना ही ध्यान है। शरीर का अप्रकम्पन कायिक ध्यान है। श्वास का अकप्रम्पन आनापान ध्यान है। वाणी का अप्रकम्पन वाचिक ध्यान है । मन का अप्रकम्पन मानसिक ध्यान है । कायिक ध्यान ___ शरीर का प्रकम्पन पूर्णतः कभी नहीं रुकता। उसकी ऊर्मियों का प्रवाह निरन्तर चलता रहता है। जब हम स्थिर होकर बैठते हैं तब भी चलता रहता है । फिर शरीर का अप्रकंपन कैसे हो सकता है ? यहां अप्रकंपन का प्रयोग सापेक्ष है । यद्यपि शरीर के प्रकंपन पूर्णत: नहीं रुकते, फिर भी हाथ, पैर आदि अवयवों की चेष्टाएं नहीं होतीं, शरीर बाह्यकार में स्थिर हो जाता है तब अप्रकम्पन का एक बिन्दु बनता है । यही कायिक ध्यान है । यह अप्रकपन का सामान्य बिन्दु है। इसमें मात्रा-भेद होता है। एक व्यक्ति प्रथम
SR No.032716
Book TitleMahavir Ki Sadhna ka Rahasya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragya Acharya, Dulahrajmuni
PublisherTulsi Adhyatma Nidam Prakashan
Publication Year1985
Total Pages322
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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