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________________ महावीर की साधना का रहस्य सूक्ष्म ध्वनि का बहुत बड़ा योग है। हमारे स्थूल मन की बात को सूक्ष्म मन तक पहुंचाने के लिए सबसे सुन्दर और सरल माध्यम है-सूक्ष्म ध्वनि । यदि सूक्ष्म ध्वनि के द्वारा हम अपने स्थूल मन की बात को सूक्ष्म मन तक पहुंचा दें, अवचेतन मन तक पहुंचा दें तो यह हमारी समस्या थोड़े ही दिनों में हल हो जाएगी। यह आप अनुभव करके देख सकते हैं। प्रयोग करके देख सकते हैं। यह कोई प्रदर्शन की बात नहीं है, यह कोई चमत्कार की बात नहीं है, क्योंकि हमारा मन सहज ही चमत्कार की ओर दौड़ता है । किन्तु मैं समझता हूं कि जीवन-परिवर्तन की दिशा में जो अपने अनुभव में चमत्कार आता है, उसका इतना स्थायी मूल्य है, इतना अधिक मूल्य है कि बाहर के प्रदर्शन और चमत्कार उसके सामने फीके पड़ जाते हैं। हमारे जीवन-परिवर्तन का रहस्य क्या है ? यह वाणी और वाणी का सूक्ष्मीकरण । साधना की पद्धति में जप का विकास हुआ, भावना का विकास हुआ और संकल्प का विकास हुआ। ये तीन मुख्य चीजें रही हैं-जप, भावना और संकल्प । इससे आगे मौन का विकास हुआ। हमें पहुंचना मौन तक है जहां कि वाक् का प्रयोग न हो। केवल स्थूल वाक् का नहीं। वर्तमान में मौन की पद्धति को देखता हूं तो मुझे लगता है, कि साधक मौन का मर्म नहीं जानते । उनके हाथ चलते रहते हैं, उनकी आंखें चलती रहती हैं, संकेत द्वारा सारा चलता रहता है और मौन भी चलता रहता है। काम भी न रुके और धर्म भी हो जाए। ये दोनों ऐसे चलते हैं कि कोई कठिनाई नहीं होती। यह कौन-सा मौन है, समझ में नहीं आता। मौन क्या है ? वाक्-संवर क्या है ? मैं उलटा ही चलं । गौतम स्वामी ने भगवान् महावीर से पूछा-'भंते ! मौन करने से क्या लाभ होता है ? या मौन की निष्पत्ति क्या होती है ? मौन का परिणाम क्या होता है ?' भगवान् ने कहा-'वचन-गुप्ति के द्वारा मनुष्य निर्विचारता को प्राप्त होता है। उसके विचार समाप्त हो जाते हैं।' वचनगुप्ति और निर्विचारता का सम्बन्ध है । कायगुप्ति, वचनगुप्ति और मनोगुप्ति-ये तीन गुप्तियां हैं। हमने वचनगुप्ति कर ली, मौन कर लिया और मन में विकल्पों का सिलसिला चलता रहा। भगवान् ने कहा-वचनगुप्ति का परिणाम होना चाहिए निविचारता। मन में विचार चलता रहा, मन में गुप्ति नहीं हुई, मन की चंचलता चलती रही, और वचन की गुप्ति हो गई, ऐसा होगा नहीं। यह हो नहीं सकता । जहां वचन की गुप्ति है वहां मन
SR No.032716
Book TitleMahavir Ki Sadhna ka Rahasya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragya Acharya, Dulahrajmuni
PublisherTulsi Adhyatma Nidam Prakashan
Publication Year1985
Total Pages322
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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