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महावीर की साधना का रहस्य
• इन्द्रियों के विषयों को ग्रहण करने की शक्ति कैसे विकसित हो सकती है ? इन्द्रियों के इष्ट विषयों को ग्रहण करने की हमारी ताकत तभी विकसित होगी जबकि इन्द्रिय का संवर हो जाएगा । और जो द्वार गंदगी प्रेषित कर रहा है, उसका द्वार बन्द हो जाएगा तभी हम इष्ट वस्तुओं को ग्रहण कर सकेंगे । एक कामुक व्यक्ति कभी सुन्दर रूप को नहीं देख सकता । एक निर्विकार व्यक्ति ही रूप की सुन्दरता को समझ सकता है और देख सकता है । जो कीचड़ में फंसा हुआ है, वह सुन्दरता को नहीं पकड़ सकता । क्योंकि उस पर तो दूसरी भावनाएं छा जाती हैं । वह वास्तविकता को समझ ही नहीं सकता । जिसका मन शान्त, प्रसन्न और निर्विकार होता है, वही सही स्थिति को समझ सकता है । मैं यह समझता हूं कि इन्द्रिय का संवर वहां होना चाहिए। वहां से संवर हो गया तो फिर इष्ट विषयों को ग्रहण करने से हमारी इन्द्रियां प्रबुद्ध होंगी। हमारा शरीर और मन प्रबुद्ध होगा ।
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• अनिष्ट विषय को इष्ट बनाने की कोई प्रक्रिया हो सकती है क्या ? एक चीज खाने को मिलती है । चीज अच्छी नहीं है । इष्ट नहीं है । किन्तु मन की प्रसन्नता और मन की शक्ति और धारणा जोड़ दी आपको प्रिय लगने लगेगी। ऐसा धारणा के 'धारणाओं के कारण ही इतने परिवर्तन होते हैं ।
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• शब्द को सुनकर प्रसन्नता या अप्रसन्नता होती है ? यह किसकी शक्ति है ? शब्द शब्द होता है । उसमें प्रशंसा और अवर्णवाद न हो तो फिर शब्द का कोई अर्थ ही नहीं । सूर्य तो एक है । उल्लू के लिए सूर्य के प्रकाश का कोई मूल्य नहीं । यह उल्लू की आंख को रचना का भेद है । मनुष्य की आंख की रचना का भेद है । हम तो यह नहीं कह सकते कि सूर्य में तेजस्विता नहीं है । या सूर्य में प्रकाश नहीं है । ग्रहण करना हमारी रचना का भेद हो सकता है किन्तु सूर्य जो एक तेजोमय, प्रकाशमय पिण्ड है, उसे अगर उल्लू प्रकाश रूप में न ग्रहण कर सके तो हम सूर्य की तेजस्विता को अस्वीकार तो नहीं कर सकते ?
• संस्कार और कर्मों में क्या अन्तर है ?
कर्म बहुत सूक्ष्म पुद्गल और शक्तिशाली पुद्गल हैं । एक कार्य करते समय हम बाहर से कुछ पुद्गलों को लेते हैं । ये कहलाते हैं कर्म । और बारबर काम करने से हमारे स्नायुयों में एक प्रकार का अभ्यास हो जाता है