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सूत्रकृताङ्गेभाषानुवादसहिते सप्तममध्ययने गाथा १०
कुशीलपरिभाषाधिकारः प्राणी का नाश करके परमार्थतः अपने आत्मा का ही घात करता है । "अथ" शब्द वाक्यालङ्कार में आया है। उस पुरुष के विषय में तीर्थङ्कर आदि ने यह कहा है। क्या कहा है ? यह शास्त्रकार दिखलाते हैं- जो निर्दय पुरुष हरी वनस्पति का छेदन करता है, वह इस लोक में अनार्य धर्मवाला अर्थात् क्रूर कर्म करने वाला है। वह कौन है ? जो पुरुष धर्म का नाम लेकर अथवा अपने सुख के लिए बीज का नाश करता है, उपलक्षण है इसलिए जो वनस्पति काय का नाश करता है, वह चाहे पाषण्डी हो या दूसरा हो वह अनार्या धर्मवाला है, यह आशय है ॥९॥
- साम्प्रतं हरितच्छेदकर्मविपाकमाह
- अब हरी वनस्पति के छेदन का फल शास्त्रकार बतलाते हैंगब्भाइ मिज्जति बुयाबुयाणा, णरा परे पंचसिहा कुमारा । जुवाणगा मज्झिम थेरगा य, (पाठांतरे पोरुसा य) चयंति ते आउखए पलीणा ॥१०॥ छाया - गर्भे मियन्ते ब्रुवन्तोऽब्रुवन्तश्च, नराः परे पञ्चशिखाः कुमाराः ।
युवानो मध्यमाः स्थविराश्च, त्यजन्ति त आयुः क्षये प्रलीनाः ॥ अन्वयार्थ - (गब्भाइ मिति) हरी वनस्पति का छेदन करनेवाला जीव गर्भ में ही मर जाता है । (बुया बुयाणा) तथा कोइ साफ बोलने की अवस्था में और कोई न बोलने की अवस्था में ही मर जाते हैं (परे णरा) तथा दूसरे पुरुष (पंचसिहा कुमारा) पांच शिखावाले कुमार अवस्था में ही मर जाते हैं (जुवाणगा मज्झिम थेरगा य) और कोई युवा होकर तथा कोई आधी उमर का होकर एवं कोई वृद्ध होकर मर जाते है (आउखए पलीणा ते चयंति) इस प्रकार बीज आदि का नाश करनेवाले प्राणी सभी अवस्थाओं में आयुक्षीण होने पर अपने शरीर को छोड देते है।
भावार्थ - हरी वनस्पति आदि का छेदन करनेवाले पुरुष पाप के कारण कोई गर्भावस्था में ही मर जाते हैं, कोई स्पष्ट बोलने की अवस्था में तथा कोई बोलने की अवस्था आने के पहले ही मर जाते हैं । एवं कोई कुमार अवस्था में, कोई युवा होकर, कोई आधी उमर का होकर, कोइ वृद्ध होकर मर जाते हैं, आशय यह है कि वे हर एक अवस्था में अकाल मृत्यु को प्राप्त होते हैं।
टीका - इह वनस्पतिकायोपमईकाः बहुषु जन्मसु गर्भादिकास्ववस्थासु कललार्बुदमांसपेशीरूपासु नियन्ते, तथा 'ब्रुवन्तोऽब्रुवन्तश्च' व्यक्तवाचोऽव्यक्तवाचश्च तथा परे नराः पञ्चशिखाः कुमाराः सन्तो नियन्ते, तथा युवानो मध्यमवयसः स्थविराश्च क्वचित्पाठो 'मज्झिमपोरुसा य' तत्र 'मध्यमा' मध्यमवयसः ‘पोरुसा य' ति पुरुषाणां चरमावस्थां प्राप्ता अत्यन्तवृद्धा एवेतियावत्, तदेवं सर्वास्वप्यवस्थासु बीजादीनामुपमईकाः स्वायुषः क्षये प्रलीनाः सन्तो देहं त्यजन्तीति, एवमपरस्थावरजङ्गमोपमईकारिणामप्यनियतायुष्कत्वमायोजनीयम् ॥१०॥ किञ्चान्यत्___टीकार्थ - वनस्पतिकाय का विनाश करनेवाले जीव, बहुत जन्म तक कलल, अर्बुद, और मांस पेशीरूप गर्भादि अवस्था में ही मर जाते हैं, तथा कोई साफ बोलते हुए तथा दूसरे पांच शिखावाले कुमार होकर मर जाते हैं । तथा कोई जवान होकर, कोई मध्य आयु का होकर एवं कोई वृद्ध होकर मर जाते हैं । कहीं "मज्झिम पोरुसाया" यह पाठ है । इस पाठ का अर्थ यह है कि हरी वनस्पति का छेदन करनेवाला कोई पुरुष मध्यम अवस्थावाला होकर और कोइ पुरुष की अन्तिम अवस्था पाकर अर्थात् अत्यन्त वृद्ध होकर मरते हैं । इस प्रकार हरी वनस्पति का छेदन करनेवाला जीव, सभी अवस्थाओ में अकाल में आयुक्षीण होने पर अपनी देह को छोड़ देते है । इसी तरह जो लोग दूसरे स्थावर और जङ्गम प्राणियों का घात करते हैं, उनकी आयु का भी अनिश्चित होना जान लेना चाहिए ॥१०॥
संबुज्झहा जंतवो ! माणुसत्तं, दटुं भयं बालिसेणं अलंभो ।
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