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________________ सूत्रकृताङ्गेभाषानुवादसहिते पञ्चदशमध्ययने गाथा ९ पञ्चदशमादानीयाध्ययनम् टीकार्थ - जिसने समस्त कर्मों को त्याग दिया है, वह महावीर पुरुष जाति आदि विशेषणों से परिच्छिन्न नहीं होता अथवा वह मरता नहीं है अथवा संसार में भ्रमण करता हुआ वह पुरुष जाति, जरा, मरण, रोग और शोक के द्वारा पूर्ण नहीं होता है क्योंकि जाति, जरा आदि उसी पुरुष को होते हैं, जिसके सैकड़ों जन्मों के उपार्जित कर्म शेष होते हैं परन्तु जिस महावीर पुरुष ने अपने आश्रवद्वारों को रोक दिया है तथा पहले के किये हुए कर्म भी उसके शेष नहीं हैं, उसको जाति, जरा और मरण के द्वारा पूर्ण होना सम्भव नहीं है क्योंकि उसने उसके आश्रवों को बन्द कर दिया है । आश्रवों में प्रधान स्त्रीप्रसङ्ग है इसलिए शास्त्रकार स्त्रीप्रसङ्ग के विषय में कहते हैं-जैसे अग्नि की ज्वाला जलानेवाली है और उल्लङ्घन करने के योग्य नहीं है तथापि कहीं भी नहीं रूकनेवाला और निरन्तर चलनेवाला वायु उसको अतिक्रमण कर जाता है, वह उससे जलाया नहीं जा सकता, इसी तरह वह महावीर पुरुष इस लोक में हाव भाव और कटाक्ष जिनमें प्रधान हैं तथा जो बहुत ही प्रिय और दुःख से त्यागी जाती हैं, उन स्त्रियों को भी उल्लङ्घन कर जाता है, वह उनसे जीता नहीं जाता है क्योंकि वह उनका स्वरूप जानता है और स्त्री के जय करने का फल भी जानता है । अत एव कहा है कि (स्मितेन) अर्थात् स्त्रियाँ मुस्करा कर हाव, भाव दिखाकर, मद से, लज्जा से, पराङ्मुख होकर, अर्धकटाक्ष से देखकर, वाणी से, ईर्ष्याकलह से, लीला से अर्थात् सब प्रकार से पुरुषों को प्रेम तथा स्त्री के लिए भाई-भाई की फूट हो जाती है तथा सम्बन्धियों की भी परस्पर फूट होने में स्त्रियाँ ही कारण हैं एवं बहुत से राजाओं ने स्त्रियों के निमित्त युद्ध करके राजवंशों का संहार किया है (२) इस प्रकार स्त्रियों का स्वरूप जानकर महावीर पुरुष उनको जीत लेते हैं, परन्तु उनके द्वारा वे जीते नहीं जाते हैं। यहां शङ्का होती है कि-इस गाथा में स्त्रीप्रसङ्गरूप आश्रवद्वार को बताकर उसके द्वारा शेष आश्रवों को भी समझाया है परन्तु प्राणातिपात आदि को कहकर उनके द्वारा शेष आश्रवों को उपलक्षित क्यों नहीं किया ? इसका उत्तर यह है कि कोई दार्शनिक स्त्रीप्रसङ्ग को आश्रवद्वार ही नहीं मानते हैं। वे कहते हैं कि (न मांसभक्षणे) अर्थात् "मांसभक्षण, मद्यपान और मैथुनसेवन में दोष नहीं है क्योंकि यह प्राणियों की प्रवृत्ति ही है परन्तु इनकी निवृत्ति महाफल के लिए होती है ।" ऐसी मान्यतावालों के मत का खण्डन करने के लिए यहां स्त्रीप्रसङ्ग को ही मुख्यरूप से ग्रहण किया है। अथवा मध्यम तीर्थङ्कर का धर्म चार याम का ही होता है परन्तु इस तीर्थङ्कर के शासन में पाँच यामवाला धर्म है, यह बताने के लिए यहां स्त्रीप्रसङ्ग को ही कहकर उसके द्वारा शेष आश्रवों को उपलक्षित किया है । अथवा दूसरे व्रत अपवाद के सहित हैं परन्तु इस चौथे व्रत में अपवाद नहीं है, इस बात को बताने के लिए यहां चौथे आश्रव का ग्रहण किया है । अथवा निश्चय नय से सभी व्रत तुल्य हैं, यदि एक की भी विराधना हो तो सभी की विराधना होती है, इसलिए चाहे किसी का भी निर्देश किया जाय कोई दोष नहीं है ॥८॥ - अधुना स्त्रीप्रसङ्गाश्रवनिरोधफलमाविर्भावयन्नाह - अब शास्त्रकार स्त्रीप्रसङ्गरूप के निरोध का फल बताने के लिए कहते हैंइथिओ जे ण सेवंति, आइमोक्खा हु ते जणा। ते जणा बंधणुम्मुक्का, नावकंखंति जीवियं ॥९॥ छाया - स्त्रिया ये न सेवन्ते, भादिमोक्षा हि ते जनाः । ते जनाः बन्धनोन्मुक्ताः नावकाङ्क्षन्ति जीवितम् ॥ अन्वयार्थ - (जे इत्थिओ ण सेवंति) जो स्त्री का सेवन नहीं करते है (ते जणा आइमोक्खाहु) वे मनुष्य सबसे प्रथम मोक्षगामी होते हैं (बंधणुम्मुक्का ते जणा जीवियं नावकंखंति) तथा बन्धन से मुक्त वे जीव, असंयम जीवन की इच्छा नहीं करते हैं। भावार्थ - जो स्त्री का सेवन नहीं करते हैं, वे पुरुष सबसे प्रथम मोक्षगामी होते हैं। तथा बन्धन से मुक्त वे पुरुष ६११
SR No.032700
Book TitleSutrakritanga Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherRamchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages364
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size17 MB
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