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________________ सूत्रकृताङ्गेभाषानुवादसहिते पञ्चदशमध्ययने गाथा ७ पञ्चदशमादानीयाध्ययनम् - केषाञ्चित्सत्यामपि कर्मक्षयानन्तरं मोक्षावाप्तौ [तथापि] स्वतीर्थनिकारदर्शनतः पुनरपि संसाराभिगमनं भवती(ती) दमाशङ्कयाह - - कुछ दार्शनिकों की मान्यता यह है कि- "कर्मक्षय हो जाने के पश्चात् जिनको मुक्ति मिल चुकी है, वे भी अपने तीर्थ का अपमान देखकर फिर संसार में आते हैं" यह शङ्का करके शास्त्रकार कहते हैं - अकुव्वओ णवं णत्थि, कम्मं नाम विजाणइ। विन्नाय से महावीरे, जेण जाई ण मिज्जई ॥७॥ छाया - अकुर्वतो नवं नास्ति, कर्म नाम विजानाति । विज्ञाय स महावीरो, येन याति न मियते ॥ अन्वयार्थ - (अकुव्वओ ण णत्थि) जो पुरुष कर्म नहीं करता है, उसको नवीन कर्मबन्ध नहीं होता है (कम्मं नाम विजाणइ) वह पुरुष आठ प्रकार के कर्मों को जानता है (से महावीरे विनाय) वह महावीर पुरुष कर्मों को जानकर (जेण जाई ण मिज्जई) ऐसा कार्य करता है, जिससे वह संसार में न उत्पन्न होता है और न मरता है। भावार्थ - जो पुरुष कर्म नहीं करता है, उसको नूतन कर्मबन्ध नहीं होता है । वह पुरुष अष्टविध कर्मों को जानता है । वह महावीर पुरुष आठ प्रकार के कर्मों को जानकर ऐसा प्रयत्न करता है, जिससे वह संसार सागर में न तो कभी उत्पन्न होता है और न मरता है। टीका - तस्याशेषक्रियारहितस्य योगप्रत्ययाभावात्किमप्यकुर्वतोऽपि 'नवं' प्रत्यग्रं कर्म ज्ञानावरणीयादिकं 'नास्ति' न भवति, कारणाभावात्कार्याभाव इतिकृत्वा, कर्माभावे च कुतः संसाराभिगमनं ?, कर्मकार्यत्वात्संसारस्य, तस्य चोपरताशेषद्वन्द्वस्य स्वपरकल्पनाऽभावाद्रागद्वेषरहिततया स्वदर्शननिकाराभिनिवेशोऽपि न भवत्येव, स चैतद्गुणोपेतः कर्माष्टप्रकारमपि कारणतस्तद्विपाकतश्च जानाति, नमनं नाम-कर्मनिर्जरणं तच्च सम्यग् जानाति, यदिवा कर्म जानाति तन्नाम च, अस्य चोपलक्षणार्थत्वात्तद्धेदांश्च प्रकृतिस्थित्यनुभावप्रदेशरूपान् सम्यगवबुध्यते, संभावनायां वा नामशब्दः, संभाव्यते चास्य भगवतः कर्मपरिज्ञानं विज्ञाय च कर्मबन्धं तत्संवरणनिर्जरणोपायं चासौ 'महावीरः' कर्मदारणसहिष्णुस्तत्करोति येन कृतेनास्मिन् संसारोदरे न पुनर्जायते तदभावाच्च नापि म्रियते, यदिवा-जात्या नारकोऽयं तिर्यग्योनिकोऽयमित्येवं न मीयते-न परिच्छिद्यते, अनेन च कारणाभावात्संसाराभावाविर्भावनेन यत्कश्चिदुच्यते"ज्ञानमप्रतिघं यग्य, वैराग्यं च जगत्पतेः । ऐश्वर्यं चैव धर्मध, सहसिद्धं चतुष्टयम् ॥२॥" इत्येतदपि व्युदस्तं भवति, संसारस्वरूपं विज्ञाय तदभावः क्रियते, न पुनः सांसिद्धिकः कश्चिदनादिसिद्धोऽस्ति, तत्प्रतिपादिकाया युक्तेरसंभवादिति ॥७॥ टीकार्थ - वह मुक्त पुरुष समस्त क्रियाओं से रहित होता है, उसके योगरूप कारण नहीं होते, इसलिए वह कुछ भी कार्य नहीं करता है, इस कारण उसको नवीन ज्ञानावरणीय आदि कर्म का बन्ध नहीं होता । क्योंकि कारण के अभाव होने से कार्य का भी अभाव होता है । इस प्रकार कर्म के अभाव होने पर किस प्रकार मुक्त पुरुष फिर संसार में आ सकता है ? क्योंकि संसार कर्म का ही कार्य है । वस्तुतः मुक्त जीव समस्त द्वन्द्वों से रहित होता है, उसको अपने और पराये की कल्पना भी नहीं होती तथा वह रागद्वेष से रहित होता है, इसलिए उसको अपने तीर्थ के अपमान का ध्यान भी नहीं होता है । इन गुणों से युक्त वह पुरुष आठ प्रकार के कर्मों के कारण को और उनके फल को भी जानता है तथा वह कर्म की निर्जरा को भी अच्छी तरह जानता है । अथवा वह पुरुष कर्मों को और उनके नामों को तथा नाम शब्द उपलक्षण होने से कर्मों के भेद प्रकृति, स्थिति, अनुभाव और प्रदेशों को भी अच्छी तरह से जानता है । अथवा नाम शब्द सम्भावना अर्थ में आया है इसलिए उस भगवान् का कर्मपरिज्ञान सम्भव है । तथा उन कर्मों को जानकर उनको रोकने तथा उनकी निर्जरा के उपाय को जानकर कर्म को विदारण करने में समर्थ वह महावीर पुरुष ऐसा कार्य करता है, जिससे वह इस संसार में फिर जन्म नहीं लेता तथा जन्म न लेने के कारण मरता भी नहीं है । अथवा वह जाति को प्राप्त करके "यह नारक है और यह तिर्यश्च है, इस प्रकार वह नहीं समझा जाता है । यहां कारण के अभाव होने से संसार का अभाव शास्त्रकार ने ६०९
SR No.032700
Book TitleSutrakritanga Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherRamchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages364
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size17 MB
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