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________________ सूत्रकृताङ्गेभाषानुवादसहिते पञ्चदशमध्ययने प्रस्तावना पञ्चदशमादानीयाध्ययनम् ज्ञान आदि को लेकर इसका नाम रखा है । __ अब नियुक्तिकार 'आदानीय' नाम का प्रवृत्ति निमित्त दूसरे प्रकार से बताते हैं- जो पद प्रथम श्लोक के अन्त में हो अथवा प्रथम श्लोक के अर्धभाग के अन्त में हो वही पद यदि शब्द अर्थ और उभय श्लोक के आदि में हो अथवा द्वितीय श्लोक के अर्धभाग के आदि में हो तो वह पद आदि और अन्त के सदृश होने से आदानीय कहलाता है। इस अध्ययन में ऐसा ही हुआ है, इसलिए इसका आदानीय नाम है अथवा विशिष्ट ज्ञान आदि का इसमें प्रतिपादन हुआ है, इसलिए इसका नाम आदानीय रखा है। कोई कहते हैं कि- इस अध्ययन के अन्त और आदि पद का संकलन हआ है इसलिए इसका 'संकलिका' है। संकलिका के भी नाम आदि चार निक्षेप करने चाहिए । उनमें द्रव्य संकलिका बेड़ी आदि में होती है और भाव संकलिका उत्तरोत्तर विशिष्ट गुणों को संग्रह करना समझना चाहिए । अथवा आदि और अन्तपद के संकलन होने से यही अध्ययन भाव संकलिका है । जिनका मत यह है कि आदान पद को लेकर अध्ययन का नाम होता है, उनके मत में अध्ययन के आदि में जो पद होता है उसको आदानपद कहते हैं, इसलिए आदि शब्द का निक्षेप बताने के लिये नियुक्तिकार कहते हैं- आदि शब्द के नाम आदि चार निक्षेप होते हैं, उनमें सुगम होने के कारण नाम और स्थापना को छोड़कर द्रव्य आदि बताते हैं- परमाण आदि द्रव्य का अपने पर्याय में जो पहले पहल परिणाम होता है, उसे द्रव्य आदि कहते हैं तथा दूध के नाश के समय दधि आदि का जो पहला परिणाम होता है, उसे द्रव्यादि कहते हैं। इसी तरह दूसरे परमाणु आदि का जो पहले पहल परिणाम उत्पन्न होता है, वह सभी द्रव्यादि कहलाता है। कहते हैं कि- जिस समय दूध का नाश होता है उसी समय दधि की उत्पत्ति कैसे हो सकती है ? क्योंकि उत्पत्ति और विनाश, भाव तथा अभावरूप होने से वस्तु के धर्म हैं। धर्म, धर्मी के बिना नहीं होता है इसलिए उत्पत्ति के धर्मी दधि और विनाश के धर्मी दूध की एक क्षण में सत्ता (रहना) प्राप्त होती है, परन्तु यह देखा नहीं जाता है तथा इष्ट भी नहीं है। कहते हैं कि- यह दोष नहीं है, जो वादी क्षणमात्र वस् है, उसके मत में यह दोष हो सकता है (अर्थात् दधि के समय में भी दूध की सत्ता सिद्ध होने से उसका क्षणिक सिद्धान्त नष्ट हो जाता है) परन्तु जो अन्वयी द्रव्य को पूर्व और उत्तर दोनों क्षणो में रहना मानते हैं, उनके मत में दधि के समय में दूध का रहना दोष नहीं किन्तु इष्ट है क्योंकि वह परिणामी द्रव्य, एक ही समय में एक स्वभाव से उत्पन्न होता है और दूसरे स्वभाव से नष्ट होता है क्योंकि वस्तु अनन्त धर्मात्मक होती है इसलिए उक्त शंका सार रहित है। इस प्रकार अपने इष्ट परिणाम से परिणत होते हुए पदार्थ का जो प्रथम समय है, उसे द्रव्यादि कहते हैं । यहाँ द्रव्य की प्रधानता की विवक्षा करके प्रथम समय को द्रव्यादि कहते हैं । अब नियुक्तिकार भाव आदि के विषय में कहते हैं- तीर्थकर और गणधर आदि अन्तःकरण के परिणाम विशेष को भाव कहते हैं, वह आगम से और नोआगम से होने के कारण दो प्रकार का है। उनमें नोआगम से भाव, प्रधान पुरुषार्थ रूप से माने जाने के कारण पाँच प्रकार का है, जैसे कि- प्राणातिपात विरमण आदि, उन पाँच महाव्रतों को ग्रहण करने का जो प्रथम समय है वह नोआगम से भावादि है । तथा आगम से भावादि इस प्रकार समझना चाहिए-आचार्य की पेटी अथवा सर्वस्व आधार जो यह द्वादशाङ्ग है तथा तु शब्द से जो दूसरे उपाङ्ग आदि हैं, उन प्रवचनों का जो पहला ग्रन्थ है और उस ग्रन्थ का जो पहला श्लोक है एवं उसका भी जो पहला पद है और उसका भी जो प्रथम अक्षर है ये सब भावादि हैं। इस प्रकार भावादि अनेक प्रकार का होता है। उसमें भी समस्त प्रवचनों का आदि सामायिक है और उसका आदि 'करोमि' पद है और उस पद का भी आदि ककार है इसलिए वह । इसी तरह बारह अङ्गों में आचाराङ्ग सूत्र आदि है और उसमें भी शस्त्रपरिज्ञाध्ययन आदि है । शस्त्रपरिज्ञाध्ययन में भी जोवोद्देशक आदि है' उसमें भी 'सुर्य' पद आदि है और उसमें भी 'सु' आदि है (इसलिए वह भावादि है ।) इस सूत्रकृताङ्ग सूत्र का समयाध्ययन आदि है और उसका भी पहला उद्देशक पहला श्लोक पहला पद, और पहला वर्ण आदि समझना चाहिए ॥१३२-१३६।। नाम निक्षेप समाप्त हुआ। इसके पश्चात् शुद्धता के साथ सूत्र का उच्चारण करना चाहिए वह सत्र यह है ६०२
SR No.032700
Book TitleSutrakritanga Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherRamchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages364
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size17 MB
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