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सूत्रकृताङ्गे भाषानुवादसहिते चतुर्दशमध्ययने गाथा १४
ग्रन्थाध्ययनम्
चारित्राख्यो दुर्गतिप्रसृतजन्तुधरणस्वभावो येनासावपुष्टधर्मा, स चागीतार्थः- सूत्रार्थानभिज्ञत्वादबुध्यमानो धर्मं न जानातीतिन सम्यक् परिच्छिनत्ति, स एव तु पश्चाद्गुरुकुलवासाज्जिनवचनेन 'कोविदः' अभ्यस्तसर्वज्ञप्रणीतागमत्वान्निपुणः सूर्योदयेऽपगतावरणश्चक्षुषेव यथावस्थितान् जीवादीन् पदार्थान् पश्यति, इदमुक्तं भवति यथा हि इन्द्रियार्थसंपकत्साक्षात्कारितया परिस्फुटा घटपटादयः पदार्थाः प्रतीयन्ते एवं सर्वज्ञप्रणीतागमेनापि सूक्ष्मव्यवहितविप्रकृष्टस्वर्गापवर्गदेवतादयः परिस्फुटा निःशङ्कं प्रतीयन्त इति । अपिच कदाचिच्चक्षुषाऽन्यथाभूतोऽप्यर्थोऽन्यथा परिच्छिद्यते, तद्यथामरुमरीचिकानिचयो जलभ्रान्त्या किंशुकनिचयोऽग्न्याकारेणापीति । न च सर्वज्ञप्रणीतस्यागमस्य क्वचिदपि व्यभिचारः, तद्व्यभिचारे हि सर्वज्ञत्वहानिप्रसङ्गात्, तत्संभवस्य चासर्वज्ञेन प्रतिषेद्धुमशक्यत्वादिति ॥१३॥
टीकार्थ जैसे मार्ग को जाननेवाला पुरुष अँधेरी रात में अत्यन्त गहन जङ्गल में मार्ग को नहीं जानता है किन्तु सूर्योदय होने से अन्धकार हट जाने पर मार्ग को जान लेता है, इसी तरह नवीन प्रव्रज्या धारण किया हुआ शिष्य भी सूत्र, अर्थ के ज्ञान में अनिपुण होने के कारण दुर्गति में जाते हुए प्राणियों को दुर्गति से रक्षा करनेवाले श्रुत और चारित्र धर्म को अच्छी तरह से नहीं जानता है। वह गीतार्थ नहीं है, इसलिए सूत्रार्थ न जानने के कारण अबोध है, अतः वह धर्म को अच्छी तरह से नहीं जानता है, परन्तु वही शिष्य गुरुकुल में सर्वज्ञ प्रणीत आगम का अभ्यास करते हुए धर्म में निपुण होकर जीवादि पदार्थों को इस प्रकार देखता है, जैसे सूर्योदय होने पर नेत्र के द्वारा पदार्थों को देखता है । भाव यह है कि जैसे इन्द्रिय और पदार्थों के संयोग से घटपटादि पदार्थ साफसाफ दीखाई देते हैं, इसी तरह सर्वज्ञ प्रणीत आगम के द्वारा भी सूक्ष्म, व्यवहित, और दूरवर्त्ती स्वर्ग, मोक्ष तथा देवता आदि पदार्थ साफ-साफ निःशंक प्रतीत होते हैं । यद्यपि कभी-कभी नेत्र के द्वारा दूसरे प्रकार का पदार्थ दूसरे तरह का प्रतीत होता है जैसे मरुमरीचिका (मरु देश में सूर्य्य की किरणें ) जल रूप से प्रतीत होती है और पलाश की पुष्प राशि अग्नि रूप में जानने में आती है तथापि सर्वज्ञ प्रणीत आगम में कहीं भी फर्क नहीं पड़ता है क्योंकि फर्क पड़ने पर सर्वज्ञता नहीं रहती है । सर्वज्ञ के कहे हुए पदार्थों को असर्वज्ञ पुरुष निषेध नहीं कर सकता ॥१३॥
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शिक्षको हि गुरुकुलवासितया जिनवचनाभिज्ञो भवति, तत्कोविदश्च सम्यग् मूलोत्तरगुणान् जानाति, तत्र मूलगुणानधिकृत्याह
शिष्य गुरुकुल में निवास करके जिनवचनों का ज्ञाता हो जाता है और जिन वचनों का ज्ञाता होकर मूल और उत्तरगुणों को अच्छी तरह से जान लेता है, उनमें मूलगुणों के विषय में शास्त्रकार कहते हैं उड्ढं अहेयं तिरियं दिसासु, तसा य जे थावरा जे य पाणा ।
सया जए तेसु परिव्वएज्जा, मणप्पओसं अविकंपमाणे
छाया -
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।।१४।।
ऊर्ध्वमधस्तिर्य्यदिशासु, त्रसाश्च ये स्थावरा ये च प्राणाः । सदा यतस्तेषु परिव्रजेत् मनाक् प्रद्वेषमविकम्पमानः ॥ अन्वयार्थ - ( उ
अहेयं तिरियं दिसासु) ऊपर, नीचे और तिरच्छी दिशाओं में (तसा य जे थावरा जे य पाणा) जो त्रस और स्थावर प्राणी रहते हैं (तेसु सया जए परिव्वज्जा) उनमें सदा यत्नपूर्वक संयम पालन करे ( मणप्पओसं अविकंपमाणे) तथा उनमें थोड़ा भी द्वेष न करता हुआ संयम में निश्चल रहे ।
भावार्थ - ऊपर-नीचे तथा तिरच्छी दिशाओं में जो त्रस और स्थावर प्राणी निवास करते उनकी हिंसा जिसमें न हो ऐसा यत्न करता हुआ साधु संयम पालन करे तथा मन से भी उनके प्रति द्वेष न करता हुआ संयम में दृढ़ रहे । टीका - ऊर्ध्वमधस्तिर्यग् दिक्षु विदिक्षु चेत्यनेन क्षेत्रमङ्गीकृत्य प्राणातिपातविरतिरभिहिता, द्रव्यतस्तु दर्शयतित्रस्यन्तीति त्रसा:- तेजोवायू द्वीन्द्रियादयश्च तथा ये च स्थावराः स्थावरनामकर्मोदयवर्तिनः पृथिव्यब्वनस्पतयः, तथा 1. सर्वज्ञप्रणीतागमोक्तपदार्थसंभवस्य सर्वज्ञसंभवस्येति वा ।
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